शुक्रवार, 22 मई 2009

ज़िन्दा जला दिये जाओगे

इस पृथ्वी पर मनुष्य का जन्म होने से पूर्व ही बहुत कुछ घटित हो चुका था.बृह्मांड,सूर्य,चान्द,सितारे,आकाश,हवायें,बादल सब कुछ उपस्थित था। मनुष्य नित नई परिघटनायें यहाँ घटित होते हुए देखता और अपनी मान्यतायें तय करता जाता |प्रकृती के रहस्यों को लेकर अलग अलग अलग अलग विचार दृढ होते गए|मनुष्य अपने देवी-देवताओं का निर्माण कर चुका था।मिस्त्री लोगों ने आकाश को एक देवी माना जहाँ रात में दिखाई देने वाले चान्द सूरज दिन में गायब हो जाते थे उन्हे लगा आकाश में कोई सागर है जहाँ ग्रह नाव में बैठकर आर-पार जाते हैं|यूनानी लोगों को आकाश एक छत की तरह प्रतीत होता था। इसी तरह पृथ्वी के बारे में भी मान्यतायें बनी जैसे हमारे यहाँ मान्यता है कि सागर में एक वासुकी नाग है जिसकी पीठ पर हाथी है जिस पर एक तश्तरी है जिसमें पृथ्वी रखी है और नाग के हिलने से भूकम्प आते हैं वगैरह..।
लेकिन जहाँ एक ओर लोग अपनी मान्यताओं में परिवर्तन हेतु तत्पर नही थे वहीं उन्हीके बीच के कुछ लोग इन रहस्यों को सुलझाने में लगे थे।सबसे पहले दूसरी सदी में यूनान के क्लाडियस नामक वैज्ञानिक ने बताया कि सूर्य चान्द,तारे भी कोई देवी-देवता नही हैं वे पृथ्वी की तरह पिंड हैं.फिर पन्द्रहवीं सदी में पोलैंड के निकोलस कॉपरनिकस(1473-1543) ने बताया कि सूर्य केन्द्र मे है तथा पृथ्वी सहित अन्य ग्रह उसकी परिक्रमा करते हैं। इस बात का भीषण विरोध हुआ। उनकी पुस्तक ‘On The Revolution” उनके मरने के बाद प्रकाशित हुई।सोलहवीं सदी में इटली के गियारडानो ब्रूनो(1548-1600)ने कहा कि कॉपरनिकस बिलकुल सही थे,इस बात के लिये उन पर मुकदमा चला और 17 फरवरी 1600 को उन्हे ज़िन्दा जलाया गया।इंग्लैंड,जर्मनी,फ्रांस में इसके प्रचार के बाद अनेक वैज्ञानिक इस मान्यता के पक्ष में आये,पहला टेलीस्कोप बनाने वाले गेलेलिओ(1564-1642),ग्रहों का अंडाकार पथ बताने वाले कैपलर(1571-1630)और गुरुत्वाकर्षण के खोजकर्ता न्यूटन(1642-1727).अनेक विरोधों का सामना करने के बाद आज कहीं यह मान्यतायें स्थापित हो पाई हैं।
आज आप प्रायमरी स्कूल के बच्चे से भी कहें कि पृथ्वी स्थिर है और सूर्य रोज़ उसकी परिक्रमा करता है तो वह आपके सामान्य ज्ञान पर हंसेगा।लेकिन जो लोग नित्य सूरज चान्द व ग्रहों की पूजा करते हैं,उनसे डरते हैं उन्हे अपनी कुंडली मे बिठाकर उनकी शांती हेतु जाने क्या क्या करते हैं उन्हे क्या कहेंगे आप? कॉपरनिकस और ब्रूनों के युग के लोग अभी भी जीवित हैं.उनसे उलझकर तो देखिये आप भी ज़िन्दा जला दिये जायेंगे..(कवि की सलाह- आलोक धनवा की कविता “ब्रूनो की बेटियाँ” अवश्य पढें)
शरद कोकास

शनिवार, 16 मई 2009

लाल पंजे वाला भूत


लाल पंजे वाला भूत


जब हम अन्धश्रद्धा निर्मूलन का काम शुरू करते हैं तो हमारी मुलाकात ऐसे अनेक लोगों से होती है जिनके पास भूत प्रेत के ढेरों किस्से होते हैं.ये किस्से पीढी दर पीढी चलते रहते हैं.फिर मनोहारी कहानियाँ.सच्ची कहानियाँ जैसी पात्रिकाओं में ऐसे किस्से छपते रहते हैं.भूत प्रेत पर फिल्में बनती हैंजो खूब चलती हैं.जादू-टोना,भूत प्रेत पर धारावाहिक बनते हैंजिनक बडा टी.आर.पी. होता है.भूत के बारे में सबके अपने अपने अनुभव होते हैंजिन्हे सब अपने अपने तरीके से बताते हैं.सब यही कहते हैंकि हमने ऐसा सुना है या हमने फलानी फलानी किताब मे ऐसा पढा है.कुछ लोग इससे भी आगे बढकर कहते हैं कि हमने भूत देखा है.यह कैसे होता है और इसका क्या मनोविज्ञान है इस पर तो मै आगे कि पोस्ट मे बात करुंगा फिल्हाल यह कि भूत प्रेत के यह किस्से पीढीयों से हस्तांतरित होते हुए हम तक पहुंचे हैं जिसके फलस्वरूप हम ऐसी स्थिती में हैं कि ऐसा हो भी सकता है और ऐसा नही भी हो सकता है.चलिए इस पर बात तो होती रहेगी.आपको मै एक किस्सा सुनाता हूँ जो मैने नागपुर की अन्धश्रद्धानिर्मूलन समिति के श्री हरिश देशमुख से सुना.

नागपुर मे एक जगह है तेलनखेडी.बरसों पहले वहाँ पर घनी आबादी का अभाव था.यहाँ तक कि लोग उस ओर जाने से भी कतराते थे .ऐसा कहते थे कि उस निर्जन स्थान मे भूत रहते हैं.इन भूतों मे मे भी एक भूत बहुत प्रसिद्ध था”लाल पंजे वाला भूत”.लोग बताते थे कि वह लोगों को मारकर उनका हाथों की अंजुली से उनका खून पीता है इस वज़ह से उसके हाथ हमेशा लाल दिखाई देते हैं.एक बार पता चला कि तीन लडके वहाँ बेहोश पाये गये.हुआ यह था कि भूत को देखने की उत्सुकता मे वे तीनों शाम को वहाँ पहुंचे.दूर दूर तक उन्हे कोई नही दिखाई दिया.काफी दूर जाकर उन्हे एक पान की दुकान दिखाई दी. वे पानवाले के पास पहुंचे और उससे पूछा”भैया इधर कोई लाल पंजे वाला भूत रहता है क्या?” पानवाले ने हंसकर कहा “मेरी कई साल से यहाँ पान की दुकान है यहाँ कोई भूत-वूत नही है.चलो भागो यहाँ से” लडके ज़िद करने लगे “नही भैया हमने सुना है यहाँ एक भूत है उसके लाल लाल हाथ हैं” पान वाले ने अपने कत्थे से रंगे हुए हाथ दिखाये और कहा “ऐसे हैं क्या?”इसके बाद का किस्सा तो पान वाले ने ही अपने ग्राहकों को बताया क्योंकि लडके तो बेहोश हो गये थे.अब पता नही सचमुच बेहोश हुए थे या नही?

कुल मिलाकर यह कि ऐसे किस्से एक कान से दूसरे कान तक जाते हुए बढते ही जाते हैं मैने भी शायद एकाध बात अपनी तरफ से जोड दी हो .आप भी जोड दीजियेगा.हाँ इस बात का खयाल रखियेगा कि इस किस्से से भूत प्रेत पर सुनने वाले का विश्वास बढता है या समाप्त हो जाता है. वैसे यह इतना आसान नही है लेकिन मुझसे बात करते रहिये और अपने मस्तिष्क का उपयोग करते रहिये.वैज्ञानिक चेतना का प्रसार इसी तरह होगा. फिलहाल इतना ही.

आपका

शरद कोकास

मंगलवार, 12 मई 2009

चुप हो जा नहीं तो गब्बर आ जायेगा




"शोले" में गब्बरसिंह का मशहूर संवाद है"गाँव में जब कोई बच्चा रोता है तो माँ कहती है चुप हो जा नही तो गब्बर आ जाएगा"इस तरह के संवादों ने गब्बर को खलनायक बनाकर महिमामंडित किया लेकिन वास्तविकता यही है.गाँव हो या शहर अब भी रोते हुए बच्चे को चुप कराने के लिए यही कहा जाता है "चुप हो जा नही तो भूत आ जाएगा ,चुप हो जा नही तो बाबा पकड़कर ले जाएगा,चुप नही तो पुलिस पकड़ लेगी या चुप हो जा नही तो अंधेरे में फेंक देंगे"भूत ,बाबा,पुलिस अंधेरे और अज्ञात के प्रति भय का भाव यहीं पर बच्चे के कोमल मस्तिष्क में जन्म लेता है और वह जीवन भर इनसे डरता रहता है.

गाँव में किसी प्राकतिक विपदा या बीमारी फ़ैल जाने की वज़ह भी इसीलिए किसी ऐसी शक्ति को माना जाता है जिससे उसका कोई सम्बन्ध नही होता .यहाँ तक की डीहायड्रेशन ,डायरिया ,लू लगना ,या सामान्य पेटदर्द या बुखार जैसी बातों के लिए भी कहा जाता है की "इसे किसी की नज़र लग गई है"बीमारी से पशुओ की मौत हो ,अनावृष्टि या कीट की वज़ह से फसल सूख जाए इसके लिए भी कारणों की खोज न कर किसी व्यक्ति को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है. विपदा के लिए किसी पुरूष को दोष देना ज़रा मुश्किल है इसलिए किसी निरीह स्त्री पर यह दोष मढ़ दिया जाता है इसलिए की वह विरोध नही कर सकती .फ़िर शुरू होता है उसे टोनही या डायन कह कर उसे प्रताडित करने का सिलसिला .मारपीट,अवमानना,निर्वस्त्र करना तो सामान्य बात है ,भूत-प्रेत और अंधेरे से डरने वाला वह बच्चा बड़ा होकर उसकी हत्या करने से भी नही चूकता ।

यह गब्बरसिंह के अविर्भाव से पूर्व की बात नही है यह तो अब भी घटित हो रहा है और इसके लिए अनपढ़ और पढेलिखे सब बराबर के जिम्मेदार है, निरक्षर इसलिए की उन्हें कुछ नही पता और साक्षर इसलिए की पढ़लिखकर भी उन्होंने अपनी वैज्ञानिक दृष्टी का विकास नही किया .छत्तीसगढ़ में लागू टोनही निवारक कानून जैसी व्यवस्था इस बुराई को दूर करने में मदद अवश्य कर सकती है लेकिन ज़रूरत है अपने और औरों के मस्तिष्क के अवचेतन में बचपन में डाली गई उन भ्रांतियों को दूर करने की जो अपराध को जन्म देती है .आप प्रयास प्रारंभ तो करे. .फिलहाल शरद कोकास की यह एक कविता "डायन"जो इसी विषय पर लिखी गई है.यह कविता कवि विष्णु खरे को बहुत पसंद है और उन्होंने इसका अंग्रेजी में अनुवाद भी किया है।

डायन


वे उसे डायन कहते थे
गाँव में आन पड़ी तमाम विपदाओं के लिए
वही जिम्मेदार थी
उनका आरोप था
उसकी निगाहें बुरी है
उसके देखने से बच्चे बीमार हो जाते है
गर्भ गिर जाते है
बाढ़ के अंदेशे है उसकी नज़रों में
उसके सोचने से अकाल आते है

उसकी कहानी थी
एक रात तीसरे पहर
वह नदी का जल लेने गई थी
ऐसी ख़बर थी की उसके तन पर उस वक्त
एक भी कपड़ा न था

सर सर फैली यह ख़बर
कानाफूसियों में बढती गई
एक दिन
डायरिया से हुई एक बच्चे की मौत पर
वह डायन घोषित कर दी गई
किसी ने कोशिश नही की जानने की
उस रात नदी पर क्यों गई थी वह
दरअसल अपने नपुंसक पति पर
नदी का जल छिड़ककर
ख़ुद पर लगा
बाँझ का कलंक मिटाने के लिए
यह तरीका उसने अपनाया था
रास्ता किसी चालाक मान्त्रिक ने सुझाया था

एक पुरूष के पुरुषत्व के लिए
दुसरे पुरूष द्वारा बताया गया यह रास्ता था
जो एक स्त्री की देह से होकर गुजरता था
उस पर काले जादू का आरोप लगाया गया
उसे निर्वस्त्र कर दिनदहाडे
गलियों बाज़ारों में घुमाया गया
बच्चों ने जुलूस का समां बंधा
पुरुषों ने वर्जित दृश्य का मज़ा लिया
औरतों ने शर्म से सर झुका लिए

एक टिटहरी ने पंख फैलाए
चीखती हुई आसमान में उड़ गई
न धरती फटी
न आकाश से वस्त्रों की बारिश हुई.

शरद कोकास

सोमवार, 11 मई 2009

BRAIN BRAIN BRAIN

कल्पना कीजिये यदि मनुष्य के पास मस्तिष्क नही होता तो क्या होता?सीधा सा जवाब है ..फ़िर आप यह कल्पना ही कैसे करते ?इस ब्लॉग पर आप सभी विज्ञान में जिज्ञासा रखने वालो का स्वागत है इसलिए की आप सभी के पास BRAIN है.आगे और बातें होंगी फिलहाल इतना ही ॥ शरद कोकास