सोमवार, 20 सितंबर 2010

मस्तिष्क की सत्ता - मस्तिष्क की गुलामी से मुक्त होने के लिए पहले मस्तिष्क को जानें

                                           यह मस्तिष्क कैसे काम करता है

      
हमारे शरीर में विभिन्न अंग हैं । हम दिन भर में कितनी बार उन अंगों का उपयोग करते हैं ,लेकिन क्या हम कभी सोचते हैं कि यह अंग किस तरह काम करते हैं ? यह कतई ज़रूरी नहीं है कि हाथ का उपयोग करने से पहले हम सोचे कि हाथ कैसे काम करता है ,या हमारे पाँव हमारे शरीर का भार किस तरह उठाते हैं । न दाँतों के बारे में सोचना ज़रूरी है कि वे अन्न किस तरह चबाते हैं और न आँखों के बारे में कि वे किस तरह देखती हैं । जब बाहरी अंगों के बारे में यह अनावश्यक है तो फिर भीतरी अंगों की कार्यप्रणाली के बारे में तो जानना तो बिलकुल भी आवश्यक नहीं है  । लेकिन यदि हम केवल मस्तिष्क की कार्यप्रणाली के बारे मे ही जान लें तो समझ लीजिये कि आप आधे से अधिक तो जान ही गए क्योंकि बहुत सारे अंग तो इस मस्तिष्क से ही संचालित होते हैं । फिर मस्तिष्क की इस गुलामी से मुक्त होने के लिये भी हमें सबसे पहले जानना होगा कि मस्तिष्क कैसे काम करता है । विश्वास हो या अंधविश्वास यह हमारे मस्तिष्क में किस तरह घर करते हैं यह जानने के लिए भी हमें मस्तिष्क की कार्यप्रणाली को जानना होगा । बेहतर होगा किसी बर्तन को खाली करने से पहले ,उसे भरा कैसे गया यह बात हम जान लें । लेकिन इस बात का आप बिलकुल टेंशन ना लें ,मैं आपको मेडिकल साईंस नहीं पढ़ाने जा रहा हूँ । मैं अत्यंत सरल भाषा में यह बताना चाहता हूँ कि हमारे दिन-प्रतिदिन के काम इस मस्तिष्क के द्वारा कैसे सम्पन्न किये जाते हैं । चलिए हम अपनी सुविधा के लिये सबसे पहले मस्तिष्क को कुछ भागों में विभाजित कर देते हैं ।     
           
मस्तिष्क के क्रियाकलाप: हम किस तरह देखते हैं         यह मस्तिष्क का एक रफ डायग्राम है जिसे मैने सरलता पूर्वक समझने के लिये बनाया है । कृपया इस आकृति का चिकित्सकीय मापदंडों के अनुसार विश्लेषण न करें । इसे हम एक चौकोर बॉक्स की तरह भी देख सकते हैं और कई कमरों वाले एक दफ़्तर की तरह भी । सबसे पहले हम पहले भाग पर नज़र डालते हैं यह है हमारा दृष्टि केन्द्र ,यह वह केन्द्र है जिसकी वज़ह से हम देख पाते हैं ।
1 देखना  : एक कक्षा में मैने सवाल किया हमें देखने के लिये क्या ज़रुरी है ? उत्तर मिला आँखें , किसी ने कहा दिमाग , किसीने और बढ़ कर कहा दृष्टि । एक छात्र ने और बढ़ा-चढ़ा कर कहा मन की आँखें । अंत में विज्ञान के एक छात्र ने सही उत्तर दिया देखने के लिये सबसे ज़्यादा ज़रूरी है प्रकाश । यह हम सभी जानते ही हैं कि प्रकाश के अभाव में आँखें होने के बावज़ूद भी हम नहीं देख पाते हैं । आपको यह भी पता होगा कि  यह कैसे होता है अगर आप जानते होंगे टी.वी पर चित्र कैसे आता है । हमारे दृष्टि केन्द्र में छवि निर्माण होने की भी ऐसी ही प्रक्रिया है । हमारी आँख में भी कैमरे की तरह ही एक लेंस होता है । किसी भी वस्तु पर जब रोशनी डाली जाती है वह रोशनी वस्तु से परावर्तित होकर नेत्र पटल पर पड़ती है , वहाँ से जैव रासायनिक  विद्युत संवेग द्वारा मस्तिष्क के इस केन्द्र में आती है और इस तरह हम उसे देख पाते हैं । अभी मैं केवल देखने की बात ही कर रहा हूँ उस वस्तु या दृश्य को हम किस तरह पहचान पाते हैं वह आगे की बात है । देखने और पहचानने के बाद ही समझने की बारी आती है । इसीलिये कहा जाता है कि देखा हुआ हमेशा सच नहीं होता ।



उपसर्ग : उपसर्ग में मैं अब तक  महत्वपूर्ण कवियों की कवितायें देता रहा हूँ । इस विषय पर काम करते हुए मस्तिष्क के क्रियाकलाप पर बारह कविताएँ मैंने लिखीं । उनमे से एक कविता मस्तिष्क के क्रियाकलाप - देखने पर यह कविता । एक नये विषय पर लिखी इस कविता श्रंखला पर आपकी राय जानना चाहूँगा - शरद कोकास 





मस्तिष्क के क्रियाकलाप – एक – दृष्टि 



एक बच्चे सा विस्मय था जब मनुष्य  की आँखों में
रात और दिन के साथ वह खेलता था आँख मिचौली
समय की प्रयोग शाला में सब कुछ अपने आप घट रहा था

देखने के लिये सिर्फ आँख का होना काफी था
और प्रकाश छिपा था अज्ञान के काले पर्दे में
पृथ्वी से अनेक प्रकाश वर्षों की दूरी के बावज़ूद
सूर्य लगातार भेज रहा था अपनी शुभाशंसाएँ

अब जबकि ऐसा घोषित किया जा रहा है
कि ज्ञान पर पड़े सारे पर्दे खींच दिये गये हैं
और चकाचौन्ध से भर गई है सारी दुनिया
समझ के पत्थर पर लिख दी गई हैं इबारतें
आँख प्रकाश और दिमाग़ के महत्व की
जैसे कि धुप्प अन्धेरे में हाथ को हाथ नहीं सूझता
अन्धेरे में बस दिखाई देता है अन्धेरा
कोई फर्क नहीं पड़ता आँखें खुली या बन्द होने से
यह मस्तिष्क ही है जो अन्धेरे से बाहर सोच पाता है

दृश्य और आँखों के बीच प्रकाश के रिश्तों में
अन्धेरे से बाहर झाँकता है विस्मय से भरा संसार
दृश्य के समुद्र में तैरता है वर्तमान

यह दृष्य में रोशनी की भूमिका है
जो अदृष्य है विचारों के दर्शन में
यहाँ रोशनी का आशय भौतिक होने में नहीं है

अन्धेरे में भटकते बेशुमार विचारों की भीड़ में
दृष्टि तलाश लेती है अक्सर कोई चमकता हुआ विचार

मानव मस्तिष्क के विशाल कार्यक्षेत्र में
जहाँ समाप्त होती है ऑप्टिक नर्व्स की भूमिका
वहाँ दृष्टि की भूमिका शुरू होती है
ज्ञान की उष्मा में छँटती जाती है असमंजस की धुन्ध
यहाँ मस्तिष्क प्रारम्भ करता है
दृश्य में दिखाई देते विचार का विश्लेषण

यही से शुरू होती है
मुक्तिबोध की कविता अन्धेरे में ।

                        --  शरद कोकास
 
 


(चित्र गूगल से साभार )



  






  

मंगलवार, 7 सितंबर 2010

मानव मस्तिष्क के गुलाम होने की कहानी

                        फिर यह मस्तिष्क गुलाम कैसे हुआ ?
इस तरह मस्तिष्क की क्षमता का उपयोग कर मनुष्य द्वारा न केवल नये नये अविष्कार किये गये बल्कि इस तरह मनुष्यों ने आपसी संबंध भी कायम किये गए और पृथ्वी पर एक मनुष्य समाज की स्थापना हुई । सामाजिक विकास के साथ साथ मानव ने अपने मस्तिष्क की क्षमता पहचान ली थी और इसकी क्षमता का उपयोग वह न केवल अपने लिये सुख-सुविधायें जुटाने में कर रहा था अपितु समस्त प्राणियों के बीच अपना वर्चस्व कायम करने के लिये भी वह इसका उपयोग कर रहा था । यह तब भी होता था कि कुछ लोग जीवन को बेहतर बनाने के लिये मस्तिष्क का उपयोग करते थे और अन्य लोग उस जीवन का उपभोग करते थे । हालाँकि श्रम की महत्ता को नकारा नहीं गया लेकिन श्रम का बौद्धिक और शारीरिक रूप में विभाजन होने लगा था । जिन लोगों ने मस्तिष्क की क्षमता को पहचाना उन्हीके बीच ऐसे लोगों का उद्भव भी हुआ जिन्होने अन्य मनुष्यों पर शासन करने के लिये इसका उपयोग किया ।इस चालाक मनुष्य ने यह देखा कि समाज में कुछ लोग ऐसे हैं जिन पर आसानी से शासन किया जा सकता है , तब उसने अपने बीच के मनुष्यों को ही अपना गुलाम बनाना शुरु किया । मनुष्यों में सत्ता की हवस , धन लोलुपता , जैसे विकारों ने जन्म लेना शुरु किया और घास के मैदानों और पशुओं के लिये किये जाने वाले युद्ध वर्चस्व की लड़ाई में तब्दील हो गए ।ऐसा दुनिया के हर समाज में हुआ ।
धीरे धीरे मनुष्यों में वर्ग विभाजन हुआ फिर काम के आधार पर जातियाँ बनीं ,हमारे यहाँ वर्ण व्यवस्था प्रारम्भ हुई सीधे-सादे मनुष्य को चालाक मनुष्य द्वारा यह बताया गया कि मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है इसलिये कि वह परमपिता के मुख से पैदा हुआ है । सभी सभ्यताओं में जो अमीर थे उन्होने गरीबों को दास बनाया और उन्हे अमीरों की सेवा करने का काम सौंपा । मनुष्य को अपने अधीन करने के लिये आवश्यक था कि उसके मस्तिष्क को काबू में किया जाये  । सभी तानाशाहों ने यही किया । मनुष्य के मस्तिष्क को धर्म , पाप पुण्य ,लोक-परलोक ,पुनर्जन्म,मोक्ष  कर्मफल जैसी अवधारणाओं के आधार पर गुलाम बनाने की कोशिश की गई । उसे यथास्थिति में जीने का उपदेश दिया गया । इस मस्तिष्क में अज्ञात शक्तियों के प्रति भय को हवा दी गई तथा अंधविश्वास ठूंसे गये । मनुष्य के सोचने समझने व तर्क करने की शक्ति कमजोर कर दी गई । ऐसा नहीं कि मनुष्य ने इस शोषण के खिलाफ कभी सर नहीं उठाया । विश्व के अनेक भागों मे क्रांतियाँ हुईं ,रूस में ज़ारशाही के खिलाफ क्रांति हुई,ब्रिटेन में फ्यूडल सिस्टम के खिलाफ क्रांति हुई, अमेरिका में , फ्रांस में क्रांति हुई,ग्रीस में स्पार्ट्कस की क्रांति हुई आदि आदि। कहीं यह सफल हुई कहीं असफल हुई यह अलग बात है । लेकिन हमारे देश में ऐसा कभी कुछ नहीं हुआ । हमारे देश सहित विश्व के अनेक भू-भागों का मनुष्य आज पिछड़ा हुआ है या , दकियानुसी मान्यताओं से घिरा हुआ हैं तो उसके पीछे यही कारण है कि आज से हजारों वर्ष पूर्व मनुष्य के मस्तिष्क  को गुलाम कर दिया गया  है । भाग्यवाद के नाम पर् उसे अकर्मण्य  बना दिया गया है जाति व्यवस्था , वर्ण व्यवस्था व अर्थव्यवस्था के आधार पर  उसे टुकडों टुकडों में बाँट दिया गया है । हम सभी जो अपने देश के सच्चे नागरिक हैं आज भी संगठित होकर अन्याय के खिलाफ नहीं लड़ते
          यदि हमें अंधविश्वासों व अव्यवस्थाओं के खिलाफ अपनी लडाई लडनी है तो सबसे पहले मस्तिष्क  की गुलामी से मुक्त होना पडेगा। अपनी चेतना , तर्क शक्ति व सोच को पुन: धारदार बनाना पडेगा । अब्राहम लिंकन ने कहा है कि “गुलाम को उसकी गुलामी का अहसास दिला दो  तो वह बागी हो जाता है ।“ कहते हैं जब मनुष्य सोचना शुरू कर देता है तो वह तानाशाह के लिये खतरनाक हो जाता है । न सोचने वाला मनुष्य मृत व्यक्ति के समान होता है । कवि उदय प्रकाश की प्रसिद्ध कविता है
मरने के बाद आदमी कुछ नही बोलता
मरने के बाद आदमी कुछ नही सोचता
कुछ नहीं बोलने कुछ नहीं सोचने पर
आदमी मर जाता है
यदि यह बात हम समझ लें तो स्वतंत्र भारत का हर नागरिक मानसिक तौर पर  स्वतंत्र हो जाये क्योंकि जिस  तरह मानव विकास की हर प्रक्रिया का जन्म सबसे पहले मानव मस्तिष्क मे हुआ उसी तरह क्रांति या परिवर्तन भी सबसे पहले मानव मस्तिष्क में ही जन्म लेता है तत्पश्चात हम समाज में उसे प्रतिफलित होते देखते हैं ।जागृति के लिये हमें स्वयं शिक्षित होना होगा और लोगों को शिक्षित करना होगा । इसके लिये सबसे पहले ज़रूरी है मस्तिष्क की गुलामी से मुक्त होना ।
( छवि गूगल से साभार )

शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

मस्तिष्क की सत्ता - मनुष्य जाति का शैशव काल


 विकास की पूरी फिल्म का ट्रेलर है छोटा बच्चा
मनुष्य की प्रारम्भिक अवस्था में भाषा के विकास को हम शिशु के भाषा ज्ञान के विकास के साथ जोड़कर देख सकते हैं । अपनी आयु के पहले वर्ष में शिशु सही सही शब्दों का उच्चारण नहीं कर पाता । दूसरे तीसरे वर्ष में वह शब्दों के साथ छोटे सरल वाक्य बोलना सीखता है तथा पाँच छह वर्ष की आयु तक पूरी तरह वाक्य रचना सीख जाता है ।बच्चा भाषा के पहले से बने मानकों को ग्रहण करता हैं ।वह उसे उस रुप में सीखता है जिस रुप में उसे उसका परिवेश प्रदान करता है ।उसी तरह प्रांरभिक वर्ष में शिशु पत्थर या कोई वस्तु ठीक से पकड़ नहीं सकता धीरे धीरे वह सीखता है । प्राचीन मानव का यह शैशव काल हजारों वर्षों तक चला । धीरे धीरे सब कुछ उसके मस्तिष्क में दर्ज होता गया ।
          उस प्रकार हाथ, जिव्हा व गले के प्रयोग के साथ साथ मनुष्य के मस्तिष्क की क्षमता भी बढ़ती गई ।उसने आग की खोज की, आग जलाकर तापना ,माँस भूनना ,खाल व पत्तियों से तन ढंकना उसने सीख लिया । हजारों वर्षों तक वह उसी  अवस्था  में रहा । फिर उसने पत्थर के औजार व हथियार बनाये । हडडी की चीजें ,बरछी  भाले ,सूजे, सूजियाँ बनाई । गुफाओं में चित्र बनाये  । तत्पश्चात वह पशुपालन व खेती की अवस्था तक आया ।
          तात्पर्य यह कि विकास के हर चरण के साथ साथ , पर्यावरण के साथ खुद को ढालते हुए वह अपने मस्तिष्क का विकास करता गया । आज हम मानव जीवन में मस्तिष्क की अहम भूमिका को स्वीकार करते हैं ।आज हमारी प्रत्येक क्रिया प्रतिक्रिया पर मस्तिष्क का सीधा नियंत्रण है । जिस मानव को पत्थर पकड़ना तक नहीं आता था वह यान में सवार होकर अनंत ब्रम्हांड के रहस्य खोजने निकला है ।वह बिजली जिसे आकाश में देखकर वह डर जाया करता था , उसका प्रयोग वह अपनी सुख सुविधाओं के लिये कर रहा है ।मनुष्य जाति की संपूर्ण प्रगति , समस्त परिवर्तन इसी मस्तिष्क की देन है । हर परिवर्तन के पीछे हमारे हाथ हैं जिन्हे हमारा मस्तिष्क संचालित करता है । टेलीविजन ,कम्प्यूटर या एरोप्लेन का अविष्कार ध्यानावस्था में नहीं हुआ, लगातार चलने वाले  प्रयोगों और मस्तिष्क की क्षमता की वज़ह से यह अविष्कार सम्भव हुए । हमारी इंद्रियों से प्राप्त सभी अनुभूतियाँ इस मस्तिष्क में दर्ज हुई जिससे कला साहित्य संस्कृति का विकास हुआ। सारी अच्छाईयाँ और बुराइयाँ भी इसी मस्तिष्क की उपज हैं । यदि मस्तिष्क नहीं होता तो हम सचमुच जानवर के जानवर रहते ।