गुरुवार, 21 मई 2020

तुम्हारी चोटी में सितारे गूँथ दूँगा

हमारे प्रेमी गण अपनी प्रेमिकाओं से अक्सर कहते थे ..तुम्हारे लिए आसमां से तारे तोड़कर ले आऊंगा ..यह अलग बात है कि शादी के बाद वे नुक्कड़ के किराने की दूकान से किराना तक नहीं लाते .. मैंने एक बार ऐसे ही एक प्रेमी से पूछा भाई तुम यह तारे तोड़ने और उन्हें प्रेमिका की चोटी में गूंथने की बात तो करते हो लेकिन जानते हो तारे किसे कहते हैं ..जब उसने अनभिज्ञता में सर हिलाया तो मुझे यह पोस्ट लिखनी पड़ी 

उसी तरह अक्सर लोग कहते हैं आजकल मेरे ग्रह खराब चल रहे हैं .. यह बताने के लिए भी यह जानना ज़रूरी था कि ग्रह क्या है .. सो चलिए यहाँ एक संक्षिप्त जानकारी पढ़ें .. 

सूर्य या किसी अन्य तारे के चारों ओर परिक्रमा करने वाले खगोल पिण्डों को ग्रह कहते हैं। अंतर्राष्ट्रीय खगोलीय संघ के अनुसार हमारे सौर मंडल में आठ ग्रह थे जिनकी संख्या अब बारह से अधिक हो गई है । बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि, युरेनस और नेप्चून। इनके अतिरिक्त तीन बौने ग्रह और हैं  सीरीस, प्लूटो और एरीस । प्राचीन खगोलशास्त्रियों ने तारों और ग्रहों के बीच में अन्तर इस तरह किया ।

तारा क्या है ?

तारे (Stars) स्वयंप्रकाशित (self-luminous) उष्ण गैस की द्रव्यमात्रा से भरपूर विशाल, खगोलीय  हैं। इनका निजी  गुरुत्वाकर्षण (gravitation) इनके द्रव्य को संघटित रखता है। मेघरहित आकाश में रात्रि के समय प्रकाश के बिंदुओं की तरह बिखरे हुए, टिमटिमाते प्रकाशवाले बहुत से तारे दिखलाई देते हैं।रात में आकाश में चमकने वाले अधिकतर पिण्ड हमेशा पूरब की दिशा से उठते दिखाई देते हैं, एक निश्चित गति प्राप्त करते हैं और पश्चिम की दिशा में अस्त होते हैं। इन पिण्डों का आपस में एक दूसरे के सापेक्ष भी कोई परिवर्तन नहीं होता है। इन पिण्डों को तारा कहा गया।

घुमक्कड़ होने के कारण इन्हें ग्रह कहते हैं  

पर कुछ ऐसे भी पिण्ड हैं जो बाकी पिण्डों के सापेक्ष में कभी आगे जाते थे और कभी पीछे - यानी कि वे घुमक्कड़ थे। Planet एक लैटिन का शब्द है, जिसका अर्थ होता है इधर-उधर घूमने वाला। इसलिये इन पिण्डों का नाम Planet और हिन्दी में ग्रह रख दिया गया।

शनि के परे के ग्रह दूरबीन के बिना नहीं दिखाई देते हैं, इसलिए प्राचीन वैज्ञानिकों को केवल पाँच ग्रहों का ज्ञान था, पृथ्वी को भी उस समय ग्रह नहीं माना जाता था।

नासा के केपलर अभियान के तरह दो सितारों की परिक्रमा कर रहे एक नए ग्रह की खोज की है। यह ग्रह 'हैबिटेबल जोन' (रिहायश के लायक क्षेत्र) में दो सितारों की परिक्रमा कर रहा है।

इस ग्रह की पहचान केपलर 453बी के रूप में हुई है और यह केपलर मिशन द्वारा खोजा गया दो सितारों का परिक्रमा करने वाला 10वां ग्रह है।वैज्ञानिकों ने धरती की ही तरह दिखने वाले एक नए ग्रह की खोज की है। ये ग्रह G2 नाम के सितारे की परिक्रमा कर रहा है और इन दोनों के बीच भी उतनी ही दूरी है, जितनी पृथ्वी और सूर्य के बीच। G2 सूर्य की तरह ही एक सितारा है। इस ग्रह की खोज केपलर टेलिस्कोप (Kepler 452b) की मदद से की गई है, जो साल 2009 से दूसरी दुनिया की खोज में लगा हुआ है। वैज्ञानिकों के मुताबिक, ये नया ग्रह हमारी पृथ्वी से 1,400 प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित है।

ग्रहों की यह खोज निरंतर जारी है भविष्य में और कई नए गृह खोजे जाने की संभावना है ।

ज्योतिष में पृथ्वी नाम का कोई ग्रह ही नहीं है

ज्योतिष के अनुसार ग्रह की परिभाषा अलग है। भारतीय ज्योतिष और पौराणिक कथाओं में नौ ग्रह गिने जाते हैं, सूर्य, चन्द्रमा, बुध, शुक्र, मंगल, गुरु, शनि, राहु और केतु।

विज्ञान की दृष्टि से देखा जाये तो सूर्य ग्रह नहीं बल्कि तारा है । चन्द्रमा गृह नहीं बल्कि उपग्रह है तथा , राहू और केतु नामक ग्रह  काल्पनिक हैं और इनका सौर मंडल में कोई  अस्तित्व नहीं है । जिस ग्रह पृथ्वी  पर हम रहते हैं उसका भी इन नवग्रहों में उल्लेख नहीं है ।

भारत के अलावा विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताओं यथा ,मिस्त्र , बेबिलोनिया ,मेसोपोटामिया , यूनान आदि में खगोलशास्त्र पर बहुत काम हुआ है और ब्रह्माण्ड उसकी उत्पत्ति स्वरूप आदि के बारे में मान्यताएं विकसित हुईं ।

शरद कोकास




मंगलवार, 28 अप्रैल 2020

ज़िंदगी क्या है जान गए ना ?




आप में से ऐसा कोई नहीं होगा जिसने कभी ज़िंदगी के बारे में न सोचा हो । कोई कहेगा ज़िन्दगी एक पहेली है कोई कहेगा जीवन पानी का बुलबुला है ,जीवन एक उड़ती हुई पतंग है वगैरह वगैरह । जीवन के बारे में हर कवि ने दो चार पंक्तियाँ तो लिख ही डाली हैं । निदा फाज़ली साहब का मशहूर शेर है  ..

”जीवन क्या है,चलता फिरता एक खिलौना है 
 दो आँखों में एक से हंसना एक से रोना है । 

मुझे भी जीवन के बारे में कविताएँ बहुत अच्छी लगती हैं और जीवन को परिभाषित करने वाली एक कविता तो मुझे बेहद पसन्द है ..” ज़िन्दगी क्या है जान जाओगे / रेत पे लाके मछलियाँ रख दो “

मैंने भी अपनी लम्बी कविता “ पुरातत्ववेत्ता ‘ में जीवन के बारे में लिखा है .." और जीवन भी कोई गोलगप्पा नहीं / जिसे आप पुदीने की चटनी मिले पानी में डुबायें /और परम संतृप्तता के भाव में गप  से खा जाएँ ।  

जीवन की परिभाषा ढूँढने  वाले कवियों को अपना काम करने दीजिये, हम अपना काम करते हैं ।  जीवन कहाँ से आया यह हम देख चुके हैं , अब हम जीवन की वैज्ञानिक परिभाषा देखते हैं । पृथ्वी पर जीवन का आरम्भ हो चुका था लेकिन मानव जीवन के आगमन में अभी समय था । पेड़-पौधे ,कीड़े-मकोड़े, रेंगने वाले जीव तैरने वाले जीव और उड़ने वाले जीवों का आगमन हो रहा था । यह सब सजीव थे और इनमें जीवन के सभी लक्षण मौजूद थे । हम मनुष्य हैं इसलिए  हमें तो मनुष्य के जीवन से मतलब है इसलिए मनुष्य के जन्म का समाचार जानने से पहले हम जान लें ,आखिर यह सजीव होना क्या है ?

ध्यान रखिये जीव का अर्थ यहाँ आत्मा नहीं है  - जीवन के बारे में अगर आप जानते हैं तो आपको यह भी पता ही होगा कि हम मनुष्य,अन्य प्राणि,कीट-पतंगे और पेड़-पौधे सभी सजीवों की श्रेणि में आते हैं । सजीवों के कुछ विशेष लक्षण होते हैं जैसे जन्म लेना,बढ़ना, सांस लेना, भोजन , उत्सर्जन , गति, उत्तेजना तथा संतानोपत्ति और अंतत: मृत्यु आदि। ये सजीव अपने आसपास से अपने जीवन के लिए आवश्यक वस्तुयें ग्रहण करते हैं । सजीवों के सभी लक्षण जीवन के फलस्वरुप ही होते हैं । सजीवों के शरीर में जीवन के लिए आवश्यक क्रियाशीलता बनी रहती है । यह क्रियाशीलता उनके पदार्थ जीव द्रव्य विभिन्न तत्वों तथा यौगिकों का विशिष्ट संगठन हैं। इस प्रकार जीव संगठित द्रव्य है तथा जीवन उसकी क्रियाशीलता । जीवन के होने के लिए एक शरीर आवश्यक है। शरीर से बाहर जीवन नहीं हो सकता । शरीर और जीवन का तालमेल ही एक सजीव को होने का अर्थ प्रदान करता है । जीवन को बेहतर तरीके से जानने के लिए जरूरी है शरीर को जानना ।

4. जीवन में प्रोटीन , डी.एन.ए. और जल  की महत्ता  

मैं आपको पुरानी हिन्दी फिल्मों का एक दृश्य याद दिलाना चाहता हूँ । कटघरे में एक स्त्री खड़ी है और वह चीख चीख कर कह रही है "इस बच्चे का पिता यही है मी लॉर्ड ।" दूसरे कटघरे में एक विलेन टाइप का पुरुष चेहरे पर  कुटिल मुस्कान लिए  खड़ा है । उसका वकील कह रहा है  "लेकिन इसका तुम्हारे पास क्या सबूत है ?" अब फिल्मों में ऐसा दृश्य नहीं होता इसलिए कि अब समय बदल गया है और विज्ञान ने साबित कर दिया है कि बच्चे के डी.एन.ए. से पिता का डी.एन.ए. मिलाकर यह जाना जा सकता है कि उसका वास्तविक पिता कौन है । अब तो टी.वी.धारावाहिक देखने वाले बच्चे भी इस बात को बखूबी जानते हैं कि बच्चे के पिता का पता लगाने के लिए दोनों के डी.एन.ए. का मिलान आवश्यक है । अब देखते हैं कि यह डी एन ए क्या बला है ? इससे पूर्व यह जानना ज़रूरी है कि कोशिका क्या है ।

शरद कोकास 


गुरुवार, 7 सितंबर 2017

आप भी करोड़पति बनना चाहते हैं?


 
करोडपति बनाने की इच्छा किसकी नहीं होती लेकिन धर्म और परम्पराओं के नाम पर या अज्ञानतावश कई बार हम ऐसे विश्वास पाल लेते हैं जिनसे हमें कुछ मिलना तो दूर बल्कि हमारा आर्थिक नुकसान ही होता है । यद्यपि हम अज्ञानतावश उनसे अनजान रहते हैं ।

 एक प्रसंग मुझे याद आ रहा है ।  बरसों पहले दीपावली के समय की बात है । मैं घर से दूर किसी अन्य शहर में अपने मित्र के यहाँ था । वह मित्र अविवाहित था अकेला ही रहता था और गृह में कोई गृहलक्ष्मी नहीं थी लेकिन धन की देवी लक्ष्मी पर उसकी आस्था थी । पूजन संपन्न होने के पश्चात मैंने अपने मित्र से कहा चलो शहर की रौशनी देखकर आते हैं । हम लोग जब निकलने लगे तो मैंने उससे कहा "दरवाज़ा बन्द कर ताला तो लगा दो ।" उसने सहजता से कहा "आज के दिन लक्ष्मी कभी भी आ सकती है इसलिए द्वार पर ताला नहीं लगाया जाता ।" मैंने कहा “ और चोर आ गए  तो ? “ और सचमुच ऐसा ही हुआ । जब हम लोग लौटे तो चोर लक्ष्मीजी के पास रखी नकदी पर हाथ साफ कर चुके थे । वह बैचलर था सो उससे ज्यादा तो उसके घर में कुछ था भी नहीं । मैंने हँसते हुए कहा 'देख लो , यह क्यों भूल गए  कि जिस दरवाज़े से लक्ष्मी आ सकती है उससे जा भी तो सकती है ।'

मित्रों , यह बरसों पुरानी बात है अब शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो लक्ष्मी जी के आगमन की प्रतीक्षा में अपने घर के द्वार खुले छोड़कर चले जाए इसलिए कि अब सब जानते हैं धन मेहनत से कमाया जाता है ऐसे ही नहीं मिल जाता ।

हालाँकि अब भी लोग लाटरी में विशवास करते हैं , उम्मीद करते हैं कि उन्हें लाटरी मिल जाएगी , या कहीं से गडा हुआ धन मिल जाएगा । हम में से कई लोग हैं जो अभी भी करोडपति बनने की उम्मीद में जाने कहाँ कहाँ किन किन फर्जी कंपनियों में अपना धन लगाते रहते हैं । मोबाइल पर मेसेज आता है कि आपको लाटरी लग गई है , फलाने अकाउंट में इतना इतना पैसा जमा करा दीजिये और लोग करवा देते हैं फिर पता चलता है कि यह भी एक फ्राड था । क्या यह भी एक तरह का अन्द्धविश्वास नहीं है ?

तात्पर्य यह कि हमें  सायास विश्वास और अन्धविश्वास के इस दुष्चक्र से निकलना बहुत ज़रूरी है अन्यथा हम जीवन भर उन्हीं मान्यताओं और जर्जर हो चुकी परम्पराओं को ढोते रहेंगे और इसका नुकसान उठाते रहेंगे । हालाँकि इससे कोई विशेष नुकसान नहीं है , क्योंकि इतनी बुद्धि तो हम में है कि जैसे ही हमें नुकसान की सम्भावना दिखाई देती है हम सतर्क हो जाते हैं ।

शरद कोकास 

*(शरद कोकास की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक "मस्तिष्क की सत्ता" से)*

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गुरुवार, 31 अगस्त 2017

मुझे कुछ लोगों के पढ़े -लिखे होने पर शक हैं



डॉ नरेंद्र नायक अन्द्धश्रद्धा के खिलाफ़ प्रदर्शन करते हुए 
पढ़े-लिखे होने का मतलब सिर्फ अकादमिक शिक्षा प्राप्त करना नहीं होता । पढ़े-लिखे होने का अर्थ होता है वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न होना । मेरे कहने का यह तात्पर्य नहीं है कि जो पढ़े-लिखे नहीं है वे वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न नहीं होते । अफसोस इस बात का है कि एक ओर हम वैज्ञानिक मान्यताओं पर विश्वास करते हैं फिर भी परम्परा पालन या बड़ों का मन रखने हेतु बहुत सारी ऐसी बातें मानते हैं जो हम खुद नहीं मानना चाहते । जैसे...
 
सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण का कारण राहु-केतु द्वारा उन्हें निगला जाना मानते हैं जबकि हम जानते हैं यह पृथ्वी पर पड़ने वाली चन्द्रमा की छाया के कारण होता है ।

भूकम्प का कारण शेषनाग का हिलना मानते हैं जबकि हम जानते हैं यह प्लेट्स के खिसकने की वज़ह से होता है ।
  
करवा चौथ पर चांद की पूजा कर, पत्नी को प्रताड़ित करने वाले पति  के लिए भी  लम्बी उम्र की दुआयें मांगते हैं जबकि हम जानते हैं चन्द्रमा पृथ्वी का उपग्रह है और लोग उस पर पिकनिक मना कर आ चुके हैं ।

डीहायड्रेशन होने पर बच्चे की नज़र उतारते हैं जबकि हम जानते हैं यह पानी की कमी की वज़ह से होता है ।

हम वर्षा लाने के लिए यज्ञों में यकीन रखते हैं जबकि वर्षा होने का वैज्ञानिक कारण हम जानते हैं ।

डायन या टोनही कहकर किसी स्त्री को प्रताड़ित करते हैं जबकि हम जानते हैं भूत-प्रेत,जादू-टोना जैसा कुछ नहीं होता और कोई नारी टोनही नहीं होती ।

बिल्ली के रास्ता काट देने पर या किसी के छींक देने पर ठिठक जाते हैं जबकि हम जानते हैं बिल्ली अपने भोजन की तलाश में भटकती है सो सड़क पार करती है और छींक नाक में अवरोध उत्पन्न होने की वज़ह से आती है ।

हम भूत-प्रेत,पुनर्जन्म, लोक-परलोक, आत्मा,मोक्ष,पाप-पुण्य आदि में आँख मून्दकर विश्वास करते हैं जबकि हम जानते हैं मरने के बाद आदमी का कुछ शेष नहीं रह जाता ।

कितने उदाहरण दूँ ? शनिवार को शेविंग नहीं करते हैं ।
गुरूवार को नए कपडे नहीं पहनते हैं ।
घर से किसी के बाहर जाने के बाद झाड़ू नहीं लगाते हैं ।
और ताज़ा ताज़ा उदाहरण दूँ तो ग्लीसरीन के आँसू के सहारे बनाये जाने वाले धारावाहिकों और फिल्मों को देख कर ज़ार ज़ार रोते हैं और  डरावनी फ़िल्में देखकर डरते हैं  ।

*यह मत कहियेगा कि यह सब विज्ञान सम्मत है। इनके पीछे जो भी वैज्ञानिक कारण बताये जाते हैं उन्हें ही छद्म विज्ञान कहा जाता है । हम बरसों से सुनते आ रहे हैं मरते हुए एक आदमी को कांच के बॉक्स में रखा गया फिर जब वह मरा तो उसकी आत्मा कांच तोड़ते हुए बाहर निकल गई । ऐसा कोई प्रयोग दुनिया में हुआ ही नहीं । अगर कोई आपसे कहे तो उससे पूछें कि किन वैज्ञानिकों की उपस्थिति में दुनिया की किस प्रयोगशाला में यह प्रयोग हुआ है ? किसी अधिकृत वैज्ञानिक जर्नल में इन पर हुए शोध छपे हैं ? ऐसे ही आप हर बात के लिए सवाल कर सकते हैं । ज़ाहिर है इनके कारण और परिणाम में कोई सम्बन्ध नहीं है अर्थात बहुत कुछ मनगढ़ंत है । कुछ लोग यह भी कहते हैं कि उस समय के अनुसार इन अन्द्धविश्वासों  की उपयोगिता थी आज नहीं है , अगर ऐसा है तो इस समय क्यों इनके पीछे पड़े हुए हैं ?*

हालाँकि आजकल छद्म विज्ञानियों की एक नई  शाखा ने जन्म लिया है जो अपने छद्म विज्ञान पर आधारित शोधों को अपनी पत्रिकाओं में छापकर इन पर विश्वास दिलाने का प्रयास कर रही है । मीडिया अपने व्यावसायिक हितों के कारण इनके साथ है ऐसी बातों को बढ़ावा देने के कारण उसकी टी आर पी बढ़ती है जिसका सीधा सम्बन्ध उसकी कमाई से है । संतोष यह है कि छपे हुए शब्द पर विश्वास करने वाली  अधिसंख्य पढ़ी - लिखी जनता अभी इनके बहकावे में नहीं आई है ।

मेरा सवाल ऐसे ही लोगों से है जो अभी भी छद्म और यथार्थ के बीच भटक रहे हैं । ऐसे ना जाने कितने अन्धविश्वास हैं जिन्हें आपने अपने मस्तिष्क में स्थान दे रखा है । इन्हें  आप  दूर करना भी चाहते हैं लेकिन तथ्यों पर विश्वास करने में भय महसूस करते हैं । आप स्वयं को आधुनिक और पढ़े-लिखे कहलाना तो पसन्द करते हैं लेकिन जो परम्पराएं चली आ रही हैं उनकी पड़ताल नहीं करते । आस्था आपका  मार्ग अवरुद्ध करती है और आधा सच और आधा झूठ स्वीकार करते हुए उसी तरह जीवन भर दोहरे मानदंडों के साथ जीते हुए पारलौकिक सुख और मोक्ष की कामना करते हुए अंतत: मनुष्य जीवन से मुक्त हो जाते हैं । आपके पूर्वज भी ऐसे ही दुनिया से चले गए और आप भी चले जायेंगे ।

*सच सच बताइए क्या आप ऐसे ही त्रिशंकु की तरह जीते हुए मर जाना पसंद करेंगे ?*

सबा अकबराबादी ने फरमाया है ...

कब तक नजात पाएँगे वहम  यक़ीं से हम
उलझे हुए हैं आज भी दुनिया  दीं से हम



*(शरद कोकास की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक "मस्तिष्क की सत्ता" से)*

मंगलवार, 29 अगस्त 2017

किसको बना रहे हो बीडू...

*किसी बच्चे से पूछकर देखिये , पृथ्वी सूर्य के चक्कर लगाती है या सूर्य पृथ्वी के चक्कर लगाता है ?*

पता है वह आप को क्या जवाब देगा .. किस ज़माने में जी रहे हैं अंकल..हमें सब पता है ,सूर्य कैसे निकलता है चाँद कैसे निकलता है ,पानी कैसे बरसता है,पृथ्वी कैसे घूमती है ,भूकंप कैसे आता है , सुनामी कैसे आती है , ग्रहण कैसे लगता है , हम कैसे पैदा होते हैं और कैसे मरते हैं आदि आदि ।

फिर भी आप बच्चे को बताएँगे कि आसमान में एक इंद्र भगवान है जो पानी बरसाते हैं , ज्यूस नाम के देवता के पास बिजली का अस्त्र है जिसका नाम थंडर बोल्ट है । ( इस जनरेशन का बच्चा हो सकता है कहे . ..किसको बना रहे हो बीडू.. यह तो बीअर का नाम है ) फिर आप उससे कहेंगे कि मृत्यु के समय एक यमराज नाम का देवता आता है वह आपके प्राण ले जाता है तब वह ज़ोर से हँसेगा । अगर आप उससे कहेंगे कि शनि नामका देवता है जो नाराज़ हो जाए तो आपको परीक्षा में फेल कर देगा , बच्चा तुरंत अपने मोबाइल पर शनि ग्रह की तस्वीर बता देगा और कहेगा यह कोई देवता-वेवता नहीं है एक मामूली सा ग्रह है और फेल या पास कराने वाला शनि महाराज नहीं है , जो पढ़ेगा वही पास होगा । ज़माना बहुत आगे बढ़ चुका है भैया ..। अब के बच्चे न सान्ताक्लाज़ की कहानी पर यकीन करते हैं न राहू -केतु की ,न परी और राक्षसों की ।  

आधुनिकता के दौर में दिखाई देने वाला यह परिवर्तन अचानक नहीं हुआ है । प्रकृति से सम्बंधित रहस्यों की खोज बहुत धीरे धीरे संपन्न हुई और मनुष्य समाज वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न होता गया । उदाहरण के लिए  आज  से महज चार सौ साल पहले तक लोग इस बात में सब विश्वास रखते थे कि पृथ्वी स्थिर है और सूर्य उसके इर्द-गिर्द परिक्रमा करता है । उस समय तक का सारा धार्मिक साहित्य भी इसी अवधारणा पर आधारित है । लोग तत्संबंधी मान्यताओं को अंतिम  मानकर चुपचाप बैठे रहे लेकिन विज्ञान ने यहाँ भी पैठ लगाई  और इस सत्य की खोज की कि सूर्य अपने स्थान पर स्थिर है और पृथ्वी उसकी परिक्रमा करती है ।

*यदि आज आप उस पुरानी  मान्यता पर विश्वास करने के लिए  किसी बच्चे से भी ऐसा कहेंगे तो वह आपकी मूर्खता पर हंसेगा । लेकिन क्या आप जानते हैं , सिर्फ इसी एक बात को कहने के आरोप में तत्कालीन धर्माचार्यों द्वारा वैज्ञानिक गैलेलियो को कारावास में डाल दिया गया , ब्रूनो और कोपरनिकस को जान से मार डाला गया और जाने कितने लोगों को प्रताड़ित किया गया । लेकिन विज्ञान ने हार नहीं मानी और इसके बाद तो अंतरिक्ष विज्ञान में कितनी खोज हुई , कितने ही ग्रह ढूंढें गए , उनके परिक्रमा पथ ढूंढें गए , कितने ही सितारे खोजे गए , और आज तक यह सिलसिला जारी है ।*

मुश्ताक़ नक़वी साहब ने मनुष्य के इसी आत्मविश्वास पर कहा है

*ज़िन्दगी का निशाँ हैं हम लोग*
*ऐ ज़मीं आसमान हैं हम लोग*  


*(शरद कोकास की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक "मस्तिष्क की सत्ता" से)*

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गुरुवार, 24 अगस्त 2017

मनुष्य ने अपने देवताओं का निर्माण किस तरह किया

सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जायेगा 


इतना मत चाहो उसे वो बेवफ़ा हो जायेगा 
(बशीर बद्र)

 मुसीबतें पहले भी कम नहीं थीं इंसान की ज़िन्दगी में । यह मानव जीवन का प्रारंभिक दौर था जब वह आदिम मनुष्य जन्म ,मृत्यु और प्रकृति के रहस्यों से नावाकिफ था , कार्य और कारण का सम्बन्ध स्थापित कर पाने की क्षमता उसमें नहीं थी । मतलब, वह नहीं जानता था कि धूप कैसे निकलती है , पानी कैसे बरसता है , बाढ़ या भूकंप कैसे आते हैं , सूरज चाँद कैसे उगते हैं , इन्सान कैसे जन्म लेता है और कैसे अचानक मर जाता है । जीवन उसके लिए सबसे बड़ा रहस्य था । उसे पता ही नहीं चलता था , कब बीमारियाँ और प्राकृतिक विपदायें उसे घेर लेती थीं और वह असमय ही काल के गाल में समा जाता था ।  

जब उसे पता ही नहीं था कि यह सब कैसे घटित होता है तो कारण के अभाव में उसने मन ही मन यह मान लिया कि ऐसा होने के पीछे ज़रूर कोई न कोई है । फलस्वरूप अपने जीवन में जन्म  से लेकर भूख ,बीमारी और शिकार प्राप्त करने की स्थितियों और अंततः मृत्यु तक में वह किसी अज्ञात शक्ति की कल्पना करने लगा । ऐसा होने के फलस्वरूप ऐसी अनेक मान्यताओं ने उसके जीवन में अपना स्थान मज़बूत कर लिया जिनका वास्तविकताओं से कोई सम्बन्ध नहीं था । उसने अपने विवेकानुसार जीवन को सुरक्षित रूप से संचालित करने के लिए अनेक मान्यताएँ गढ़ लीं । मानने का अर्थ ही मान्यता  है ।


*यह प्रारंभिक मानव हर घटना को अत्यंत आश्चर्य भाव से देखता था तथा हर आश्चर्य के पीछे उसे किसी अज्ञात शक्ति का भास होता था । आसमान से पानी बरसता देखता तो उसे लगता वहाँ ऊपर कोई है जो पानी फेंक रहा है या बिजली चमका रहा है , भूकंप आता तो उसे लगता ज़मीन के नीचे कोई है जो उथल पुथल मचा रहा है , समुद्र से आने वाली सुनामी की ओर देखता तो उसे लगता कोई भीतर बैठा लहरों को उछल रहा है ,जंगल में लगी आग देखता तो लगता कोई है जो यह भीषण अग्निकांड कर रहा है । इस तरह उसके मन में इन अज्ञात शक्तियों के प्रति सर्वप्रथम भय पैदा हुआ और जब उन्होंने बहुत दिनों तक उसका कुछ नहीं बिगाड़ा बल्कि कुछ अच्छा ही किया तो फिर धीरे धीरे उनके प्रति श्रद्धा भी उत्पन्न हुई । आज भले ही हम इन सब बातों के वैज्ञानिक कारण जानते हों लेकिन आज  भी हम जब ईश्वर के बारे में सोचते हैं तो उसी आदिम मान्यता के अनुसार सोचते हैं कि वह एक ऐसी शक्ति है जो या तो हमारा अच्छा करता है या फिर हमारा बुरा करता है ।*

इन आसमानी शक्तियों को देवता मान लेने के बाद फिर उसकी निगाह छोटी छोटी चीज़ों की ओर गई । जैसे वह जिस प्राणी का शिकार करता या जिस पेड़ से फल या कंदमूल प्राप्त करता उसे भी अपना आराध्य मानने लगा आखिर उसकी भूख उससे शांत होती थी और प्रारंभिक मानव के पास सिवाय भूख मिटाने के और क्या काम था । बस खाना पीना और सोना । ( आज भी बहुत से लोग सिर्फ यही करते हैं ।) भय,निद्रा,मैथुन और आहार यह जैविक प्रवृत्तियाँ उसके भीतर थीं लेकिन न उसे भूख लगने का कारण पता था न जन्म लेने का । जब उसे अपने पैदा होने का कारण नहीं पता चला तो उसने मान लिया कि यह पशु- पक्षी,पेड़ ,पर्वत या नदी ही उसके पूर्वज हैं और इन्हीं से उसके वंश की उत्पत्ति हुई है । पहाड़ों की गुफाओं में वह रहता था पहाड़ उसे आसरा देता था , नदी जल देती थी , पेड़ फल और छाँव देते थे ,प्राणी अपना मांस देते थे , सो यह सब उसके देवता होते गए ।

कालांतर में जब सम्पूर्ण मानवशास्त्र का अध्ययन हुआ तो उसके इन आराध्य देवताओं को टोटम कहा गया । आज भी आदिम समाज में ऐसे टोटेम का बहुत महत्त्व है जैसे बंगाल के संथाली कबीले के लोग अपना टोटेम जंगली हंस या बतख को मानते हैं और अपने पूर्वजों को हंस के अंडे से उत्पन्न मानते हैं ।  जिस पेड़ से उन्हें फल मिलते थे या जिस जानवर का वे मांस खाते थे वे भी उनके टोटेम थे । किसी का टोटेम पीपल है किसी का नीम , किसी का भालू, किसी का हिरण किसी का खरगोश ।

इस दौरान एक अजीब बात और हुई । जैसे कहीं कहीं पर टोटेम जीवों का मांस खाना या टोटेम पेड़ों के फल खाना सही माना जाता था इसलिए  कि वे प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे इसके विपरीत जहाँ इनकी संख्या नगण्य थी वहां इनका सेवन निषिद्ध था । कहीं किसी प्राणी का सिर खाना निषिद्ध था कहीं किसी का पैर । आज भी कई घरों में कुछ चीजें ,वनस्पति या जीव खाने की मनाही होती है उसका कारण यही मान्यता है जो सहस्त्राब्दियों से चली आ रही है । कई जातियों में ऐसे ही कई प्राणियों या पेड़ों को कुलदेवता माना जाता है । सांप, बिच्छू ,बन्दर, भालू , कच्छप भी कुछ कबीलों के टोटेम थे इसलिए कि या तो वे उनके लिए  संहारक थे अथवा उनकी रक्षा करते थे । यह टोटेम वाद आदिम अर्थव्यवस्था में धर्म का ही एक रूप था । कालांतर में पूरी की पूरी जातियाँ ,वंश या कबीले भी इनके नाम से बने ।

*आज हम न सिर्फ प्रजनन शास्त्र के बारे में जानते हैं ,मानवशास्त्र के बारे में जानते हैं , बल्कि इनकी बहुत सारी शाखाओं का अध्ययन भी कर रहे हैं , सो यह सब कुछ कहानी की तरह ही लगता है बावज़ूद इसके हम अब भी इन मान्यताओं में ख़ुद को जकड़े हुए हैं ।*

*बशीर बद्र साहब के शेर का अर्थ समझ गए होंगे? इंसान ने इसी तरह पत्थर को इतना चाहा कि उसे देवता मान लिया और फिर प्रकृति रूपी उस देवता का इतना शोषण किया कि वह उससे रूठ गया , आज भी हम प्रकृति के साथ यही कर रहे हैं ना ? चाहत का दूसरा नाम दोहन भी है । कर लीजिये जितना चाहें .. कल को न ये नदियाँ रहेंगी न पहाड़ ,न पेड़ पौधे ना ऑक्सीजन , न पेट्रोल ..सब बेवफ़ा हो जायेंगे।*  


*(शरद कोकास की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक "मस्तिष्क की सत्ता" से)*

गुरुवार, 3 अगस्त 2017

आज भी घरों में कुछ चीज़ें खाने की मनाही होती है जानते हैं किसलिए ?


सबसे पहले हम देखते हैं कि छद्मविज्ञान किसे कहते हैं :- छद्मविज्ञान या pseudoscience यह संप्रत्यय उस क्रियाकलाप या विधि के लिए प्रयुक्त होता है जो विधि वैज्ञानिक होने का आभास उत्पन्न करती है किन्तु सम्यक वैज्ञानिक विधि का अनुसरण नहीं करती । सम्यक वैज्ञानिक विधि वह होती है जो कार्य कारण सम्बन्ध पर आधारित होती है एवं जिसके लिए निरंतर प्रयोग किये जाते हैं । छद्मविज्ञानी जैसा शब्द उन लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो बिना किसी आधार के किसी भी बात को वैज्ञानिक कह देते हैं । जैसे आजकल सोशल मीडिया पर आपने देखा होगा , डायबिटीज़ की बहुत सारी दवाएं बताई जा रही हैं ,एक विधि में तो गेंहू को दस मिनट उबालकर अंकुर निकालने के लिए कहा गया है । कोई भी यह जान सकता है कि उबलने के बाद अंकुर नहीं निकलते । इस तरह की सोच वाले व्यक्ति को हम यदि मानसिक रूप से विकलांग कहें तो क्या हर्ज़ है ? वैसे मनुष्य के मस्तिष्क की विकलांगता का सिलसिला बहुत पुराना नहीं है लेकिन विज्ञान और छद्मविज्ञान को एक मान लेने के कारण सबसे अधिक नुकसान यह हुआ कि हमने विश्वास और अन्ध विश्वास मे अंतर करना छोड़ दिया ।

बहरहाल ऐसा होने के फलस्वरूप ऐसी अनेक मान्यताओं ने हमारे जीवन में अपना स्थान मज़बूत कर लिया जिनका वास्तविकताओं से कोई सम्बन्ध नहीं है। मानव जीवन के प्रारम्भिक दौर में जब मनुष्य जन्म ,मृत्यु और प्रकृति के रहस्यों से नावाकिफ था ,बीमारियाँ और प्राकृतिक विपदायें उसे घेर लेती थीं और वह असमय ही काल के गाल में समा जाता था । कार्य और कारण का सम्बन्ध स्थापित कर पाने की क्षमता उसमें नहीं थी फलस्वरूप अपने जीवन में जन्म ,मृत्यु से लेकर भूख ,बीमारी और शिकार प्राप्त करने की स्थितियों में वह किसी अज्ञात शक्ति की कल्पना करने लगा । उसने अपने विवेकानुसार जीवन को सुरक्षित रूप से संचालित करने के लिए अनेक मान्यताएँ गढ़ लीं ।

यह प्रारंभिक मानव हर घटना को अत्यंत आश्चर्य भाव से देखता था तथा हर आश्चर्य के पीछे उसे किसी अज्ञात शक्ति का भास होता था । वह जिसका शिकार करता या जिस पेड़ से फल या कंदमूल प्राप्त करता उसे भी अपना आराध्य मानने लगा । उसने यह भी माना कि यह पशु- पक्षी,पेड़ ,पर्वत या नदी उसके पूर्वज हैं और इन्हीं से उसके वंश की उत्पत्ति हुई है । इन्हें ही हम ‘टोटेम’ कहते हैं । जैसे बंगाल के संथाली कबीले के लोग अपना टोटेम जंगली हंस या बतख को मानते हैं और अपने पूर्वजों को हंस के अंडे से उत्पन्न मानते हैं । जिस पेड़ से उन्हें फल मिलते थे या जिस जानवर का वे मांस खाते थे वे भी उनके टोटेम थे । कहीं कहीं पर टोटेम जीवों का मांस खाना या टोटेम पेड़ों के फल खाना सही माना जाता था इसलिए कि वे प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे इसके विपरीत जहाँ इनकी संख्या नगण्य थी वहां इनका सेवन निषिद्ध था । इसीलिए आज भी कई घरों में कुछ चीजें या जीव खाने की मनाही होती है । सांप बिच्छू भी कुछ कबीलों के टोटेम थे इसलिए कि या तो वे उनके लिए संहारक थे अथवा उनकी रक्षा करते थे । यह टोटेम वाद आदिम अर्थव्यवस्था में धर्म का ही एक रूप था ।

शरद कोकास