मस्तिष्क की सत्ता - एक
“ ना होता मै तो क्या होता “
गालिब के मशहूर शेर का मिसरा है “ डुबोया मुझको होने ने ,ना होता मैं तो क्या होता । ” ज़रा इस बात पर गम्भीरता से सोचिये कि हम हैं इसलिए हमारे लिये यह दुनिया है ,हम हैं इसलिये इस दुनिया के सारे प्रपंच हैं, सुख –दुख हैं , रिश्ते- नाते हैं , दोस्त-यार हैं , घर - परिवार है , यानि सब कुछ हैं । यदि हमारा अस्तित्व ही नहीं होता मतलब हम पैदा ही नहीं होते तो हमारे लिये कुछ नहीं होता । सारा कुछ उनके लिये होता जो इस धरती पर जन्म ले चुके हैं । यह बात उन पर लागू नहीं होती जो यहाँ जन्म लेने के पश्चात यहाँ से प्रस्थान कर चुके हैं क्योंकि उनके जाने के बाद भी उनसे जुड़ी हुई चीजें और उनकी स्मृतियाँ तो होती हैं ।
दर असल गालिब ने यह शेर अपने बहाने उस मनुष्य जाति के बारे में लिखा है जिसने इस धरती पर लाखों वर्ष पूर्व जन्म लिया है और इस जाति का प्रतिनिधि हर एक मनुष्य है जो अब तक इस बात पर विचार कर रहा है कि आखिर उसने जन्म क्यों लिया है ? जैसे ही मुसीबत आती है हम सीधे उपर वाले से सम्वाद करते हैं “हे भगवान ! तूने मुझे पैदा ही क्यों किया ? न केवल जन्म के बारे में बल्कि यह मनुष्य मृत्यु के बारे में भी विचार कर रहा है । सुख की स्थितियों में यह जीवन उसे इतना प्रिय लगता है कि वह मरकर भी मरना नहीं चाहता । हाँलाकि हम में से बहुत से लोग तकलीफ बढ़ जाने पर यह कहते ज़रूर हैं , “ हे ऊपर वाले..मुझे उठा ले “ लेकिन सचमुच कोई उठाने आ जाये तो कहेंगे..” तुम सच में आ गये यार ..मैं तो मज़ाक कर रहा था ।“
यद्यपि स्वयं का जन्म और मृत्यु दोनो ही उसके बस में नहीं है लेकिन जन्म लेने के पश्चात यह जीवन और यह शरीर उसे इतना प्रिय लगने लगता है कि लाख कष्टों के बावज़ूद वह इसे जीवित रखने की भरसक कोशिश करता है । वह बार बार जन्म लेना चाहता है और उन समस्त सुखों का उपभोग करना चाहता है जो उसके पूर्वजों ने अनवरत परिश्रम और प्रयोग कर उसके लिये जुटाये हैं ।न केवल उपभोग बल्कि हम ज़्यादा से ज़्यादा सुविधायें जुटाना चाहते हैं और उसके लिये नित नये आविष्क़ार कर मनुष्य जीवन की बेहतरी के लिये कुछ करना चाहते हैं । ऐसा कौन है जो पूर्वजों द्वारा अर्जित ज्ञान में बढ़ोत्तरी कर इस दुनिया को आगे बढ़ाने में अपना योगदान नहीं देना चाहता ? इससे बढ़कर यह कि हम में से ऐसा कौन है जो सारी सुख –सुविधाओं के साथ जीते हुए अमर होने की आकान्क्षा नहीं रखता । यह सच है और इसमें कोई दो राय नहीं कि हम सभी लगातार सोच विचार करते हुए इस दिशा में प्रयत्नशील हैं और मनुष्य होने के कर्तव्य का निर्वाह कर रहे हैं ।
सोचने विचारने ,चिंतन करने और आविष्कार करने का यह समस्त कार्य मनुष्य नामक यह प्राणि दिमाग नामक अद्भुत अंग से करता है जो उसकी देह की उपरी मंज़िल पर स्थित खोपड़ी मे अवस्थित है । डेढ़ किलो औसत वज़न का, धूसर रंग का और मख्खन जैसा नर्म यह अंग जिसमें लाखों तंत्रिकाओं का जाल है , जिसकी गति किसी तेज़ कम्प्यूटर से भी अधिक तेज़ है मनुष्य के जन्म के साथ ही अस्तित्व में आया है । भ्रूणावस्था में यह हृदय से 15 सेकंड पहले काम करना शुरू कर देता है । इस दुनिया का और मानव जाति का अब तक का सम्पूर्ण विकास यहाँ दर्ज़ है । मनुष्य के सारे अंग काम करना बन्द कर दें लेकिन जब तक मस्तिष्क काम करना बन्द नहीं करता उसे जीवित ही माना जाता है । डॉक्टर द्वारा क्लीनिकल डेथ घोषित करने का अर्थ भी यही है । यह मनुष्य के मस्तिष्क का ही कमाल है कि जिस मनुष्य को अंग ढाँकना तक नही आता था,सीधे खड़े होना नहीं आता था,उंगलियों का उपयोग करना नहीं आता था, वह इसी दिमाग की ताकत से आज चांद तक जा पहुंचा है । यह उसके मस्तिष्क की ही क्षमता है कि आज जो वह सोचता है कल उसे पूरा कर दिखाता है ।
उपसर्ग - उपसर्ग में प्रस्तुत है बर्तोल ब्रेख़्त की यह कविता
जनरल तुम्हारा टैंक एक शक्तिशाली वाहन है
वह जंगलों को रौन्द देता है
और सैकड़ों लोगों को चपेट में ले लेता है
लेकिन उसमें एक दोष है
उसे एक चालक चाहिये
जनरल , तुम्हारा बमवर्षक जहाज शक्तिशाली है
तूफान से तेज़ उड़ता है वह और
एक हाथी से ज़्यादा भारी वज़न उठाता है
लेकिन उसमें एक दोष है
उसे एक कारीगर चाहिये
जनरल आदमी बहुत उपयोगी होता है
वह उड़ सकता है और
हत्या भी कर सकता है
लेकिन उसमें एक दोष है
वह सोच सकता है ।
( बर्तोल ब्रेख़्त की इस कविता का अनुवाद कवि श्री नरेन्द्र जैन द्वारा किया गया है ।सम्पादक बृजनारायण शर्मा व हरि भटनागर की पत्रिका " रचना समय " से साभार )
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छवि गूगल से साभार