“ हम जानते हैं कि जो कुछ हमारे पास मूल्यवान है वह सब हमें विज्ञान ने प्रदान किया है । विज्ञान ही एक मात्र सभ्य बनाने वाला है । इसने गुलामों को मुक्त कराया , नंगों को कपड़े पहनाये , भूखों को भोजन दिया , आयु में वृद्धि की , हमें घर परिवार चूल्हा दिया , चित्र तथा किताबें दीं ,जलयान ,रेलें , टेलीग्राफ, तथा तार तथा इंजन जो असंख्य पहियों को बिना थके घुमाते हैं और इसने भूत पिशाचों , शैतानों ,पंखों वाले दैत्यों जो असभ्य जंगली लोगों के दिमाग पर छये रहते थे ,का नामोनिशान मिटा दिया । “
- राबर्ट ग्रीन इंगरसोल (1833-1899)
प्रसिद्ध तर्कशास्त्री राबर्ट ग्रीन इंगरसोल के इस कथन को 100 से भी ज़्यादा वर्ष बीत चुके हैं । हम सभ्यता के नये युग में प्रवेश कर चुके हैं । आज के दौर में अन्धविश्वास को लेकर बात करना बेमानी हो गया है । हम जैसे जैसे सभ्य होते जा रहे हैं सड़ी-गली मान्यतायें और रूढ़ियाँ अपने आप दूर होती जा रही हैं । हम विज्ञान के नये नये अविष्कारों का उपभोग कर रहे हैं । पहले परिवर्तन 100 वर्षों में रेखांकित किया जाता था ,फिर यह अवधि दस वर्ष हुई और अब तो प्रति वर्ष होने वाला परिवर्तन महसूस किया जा सकता है ।
यदि ऐसा है तो फिर हमें यह सब लिखने की क्या आवश्यकता है । शायद इसलिये कि अभी भी हमारे मन के किसी कोने में असभ्यता का अन्धकार है जिसे हम महसूस नहीं कर पा रहे हैं । बिल्ली के रास्ता काट देने पर अभी भी हम ठिठक जाते हैं , घर से निकलते हुए किसी के छींक देने पर पल भर के लिये ही सही ठहर जाते हैं , गृहिणी के हाथ से बर्तन गिरने पर कहते हैं कि कोई आ रहा है ,शनिवार के दिन हजामत नहीं बनाते या गुरुवार के दिन नये कपड़े नही पहनते और ऐसे ही ढेर सारे विश्वास । ठीक है हम में से अधिकांश लोग इन्हे नहीं मानते और केवल परम्परा के पालन के रूप में इनका निर्वाह करते हैं । नई पीढ़ी के युवाओं से पूछा जाये कि वे यह सब क्यों मानते हैं तो उनका जवाब होता है ..ऐसा हमारे घर में शुरू से चला आ रहा है ।
यह केवल इन छोटे-मोटे अन्द्धविश्वासों को मानने की बात तक सीमित नहीं है । दर असल हम इन विश्वासों की वज़ह से निरंतर पिछड़ते जा रहे हैं और उन चालाक लोगों के गुलाम होते जा रहे हैं जो सायास हमें मस्तिष्क के स्तर पर गुलाम रखना चाहते हैं । वे हमें भावनात्मक स्तर पर ब्लैकमेल कर रहे हैं और हम उनकी चाल समझ नहीं पा रहे हैं ।हम सभी लकीर के फकीर हैं जो चल रहा है उसमें कोई परिवर्तन नहीं चाहते , कभी कोई तर्क करना नहीं चाहते और एक यथास्थितिवादी की तरह जो विरासत में मिला है उसे जस का तस स्वीकार कर लेते हैं । देखा जाये तो इसमें कोई बुराई भी नहीं है । परम्पराओं का सम्मान करने की प्रवृत्ति हमें विरासत में मिली है । लेकिन वहीं हम नया ज्ञान प्राप्त करते समय तर्क करते हैं , स्कूल-कॉलेज में पढ़ते हुए प्रश्न करते हैं और जब तक हमारा समाधान नहीं हो जाता उस प्रश्न से जूझते हैं ।इसका अर्थ यही हुआ ना कि हम में समझने की क्षमता है लेकिन हम जानबूझ कर समझना ही नहीं चाहते ?
मनुष्य के स्वभाव की यह विशेषता है कि वह जो कुछ नूतन है उसे तो आत्मसात कर लेता है लेकिन जो पुरातन ताज्य है उसे छोड़ नहीं पाता । यह ज़रूरी भी नहीं है क्योंकि यदि हम सब कुछ जो पुरातन है उसे त्याग देंगे तो न हमारे पास इतिहास रह पायेगा न,परम्परा न संस्कृति ,न संस्कृति का गौरव । लेकिन क्या यह ज़रूरी नहीं कि हम अपने अतीत से जो कुछ ग्रहण करने योग्य है उसे ग्रहण करें और उस आधार पर नूतन की विवेचना करें । यह बिलकुल आवश्यक नहीं है कि प्राचीन मान्यताओं को आधार बनाकर हम विसंगतियों को जीवित रखने के लिए अनावश्यक कारणों की तलाश करें । अतीत की किसी विसंगति को सिर्फ इसलिए जायज़ नही ठहराया जा सकता कि हमारे पूर्वज ऐसा किया करते थे । ध्यान इस बात पर दिया जाना चाहिये कि उनकी इस सोच और कार्य के पीछे क्या कारण थे और देश- कालानुसार क्या परिस्थितियाँ थीं । आज जब हम पुरातन समय में चमत्कारिक समझी जाने वाली घटनाओं के विश्लेषण में समर्थ है इस बात की कोई आवश्यकता नही रह जाती की सामाजिक विसंगतियों को चमत्कारों के जरिये दूर होने की आशा करें या किसी अवतार की प्रतीक्षा करें ।
यही सब सोचकर मैने लगभग बीस लेखों की इस लेखमाला का विचार किया है और इसे अपने ब्लॉग “ना जादू ना टोना “ पर प्रस्तुत करना चाहता हूँ ।मेरा उद्देश्य जादू-टोने या अन्द्धविश्वासों पर बहस करना नहीं है न ही सायास कोई बात मैं आप लोगों से मनवाना चाहता हूँ । मैं चाहता हूँ के हम सब मिलकर इस समाज की सोच में कुछ परिवर्तन कर सकें । आप सभी से निवेदन है कि इस सम्वाद में हिस्सा लें और अपने विचारों से मुझे अवगत करायें ।यह लेखमाला मैं सोमवार 1 फरवरी 2010 से प्रारम्भ करने जा रहा हूँ और प्रत्येक सोमवार को इसका प्रकाशन होगा । हो सकता है इसमें सम्मिलित विषय सामग्री आपकी पढ़ी हुई हो लेकिन उसे नये नज़रिये से देखने का यह अवसर है । इसकी भाषा भी शास्त्रीय नहीं है और रोचक उद्धरणों से मैने अपनी बात समझाने की कोशिश की है । इस बहाने हम आपस में ,और उससे अधिक अपने आप से संवाद तो कर सकेंगे ।