सोमवार, 16 अगस्त 2010

मनुष्य के जीवन में संकेत की आवश्यकता


                                        इशारों इशारों में
इसी तरह प्रारंभिक काल में जब मनुष्य के पास कोई भाषा नहीं थी वह संप्रषेण के लिये संकेतों का प्रयोग करता था । वह सोच नहीं पाता था, क्योंकि सोचने के लिये भाषा अनिवार्य थी ।महाअरण्य में जब उसने हिंसक पशुओं को देखा तो उनसे स्वयं की तथा अपने समूह की रक्षा के लिये उसने हाव भाव व संकेतों का उपयोग किया । उसी तरह  शिकार के समय जानवरों का चुपचाप पीछा करने तथा उन्हे पकड़ने के लिये समझ में आने वाले संकेतों की आवश्यकता होती थी । इनकी मदद से वह साथियों को सतर्क कर सकता था तथा खामोश रख सकता था । परंतु वह अंधेरे में विवश हो जाता था , संकेतों का प्रयोग कर वह मात्र दिन में ही शिकार कर सकता था । अंधेरे में हिंसक पशुओं यथा शेर ,बाघ तथा जहरीले सापों से स्वंय की व समूह जनों की रक्षा कर पाना उसके लिये कठिन था ।उस समय तक अग्नि की खोज भी नहीं हुई थी ।
          इस आस्ट्रेलोपिथेकस मनुष्य की संकेत भाषा को जानने के लिये हम अपने संसर्ग में आने वाले पशुओं का निरीक्षण कर सकते है साथ ही ऐसे ही  मनुष्यों  का भी  निरीक्षण कर सकते हैं जो एक दूसरे की भाषा नहीं जानते तथा केवल संकेतों व भांगिमाओं से भाव व्यक्त कर सकते हैं । अंधेरे में संकेतों की निष्फलता के फलस्वरुप आदिम मनुष्य ने संकेतों के लिये गले का प्रयोग करना शुरु किया ।कुछ स्वरों व चीखों के माध्यम से उसने संकेतों का आदान प्रदान किया ।वह  दिन के प्रकाश में हाथों व चेहरे के संकेत का प्रयोग करता था तथा रात्रि में कुछ विशिष्ट स्वर संकेत निकालता था ।खतरे का स्वर निकालते ही वह देखता  सारे लोग सावधान हो जाते हैं ।अभी भी आप देख सकते हैं कि जब शेर जंगल में निकलता है तो पशु पक्षी कुछ विशिष्ट आवाजों से खतरे  के संकेत देने लगते हैं ।
          धीरे धीरे मनुष्य की यह क्षमता बढ़ी । उसने पिथिकेंथ्रोपस की अवस्था तक आते आते कुछ शब्दों का उपयोग करना सीख लिया। फिर नियंडरथल मानव की अवस्था तक वह सरल वाक्य बनाने लगा और आधुनिक मानव की अवस्था तक भाषा का बखूबी उपयोग करने लगा ।भाषा का यह संपूर्ण विकास उसके मस्तिष्क में दर्ज  होता गया ।यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि आस्ट्रेलोपिथेकस से पिथिकेंथ्रोपस मानव के मस्तिष्क के आयतन में डेढ़ गुनी तथा नियंडरथल मानव के मस्तिष्क तक मस्तिष्क के आयतन में ढाई गुनी वृध्दि हुई ।
उपसर्ग में प्रस्तुत है कवि केदारनाथ अग्रवाल की यह कविता ..यह केदार जी का जन्मशताब्दी वर्ष है   

सुबह से सूरह उजाला उगाये 
आँखें खोले शोभित शासन करता है 

ज़मीन और आसमान का भूगोल 
ऊग आये उजाले का आलिंगन करता है 

द्वन्द्व का नर्तक, काल 
नित्य और अनित्य का नर्तन करता है 

नाश और निर्माण का भागीदार आदमी 
शताब्दी के रंग रूप का परिवर्तन करता है ।
छवि गूगल से साभार