सोमवार, 31 जुलाई 2017

दुनिया का पहला वैज्ञानिक और डायटीशियन कौन था

दुनिया के प्रथम वैज्ञानिक 
 वैज्ञानिक शब्द का अर्थ यदि आप शब्दकोश में ढूँढने जायेंगे तो आपको अनेक अर्थ मिलेंगे , अध्येता , अनुसंधानी , खोजी , तत्वज्ञानी , प्रमाण वादी , मीमांसक , विचारक , शास्त्री , साइंटिस्ट , विज्ञानी , अविष्कारक इत्यादि । विज्ञान एक ऐसा सम्प्रत्यय है जिसका उपयोग आज हम वारम्वार करते हैं । मानव जाति के विकास में विज्ञान के माध्यम से अपनी भूमिका का निर्वाह करने वाले मनुष्यों को हम वैज्ञानिक कहते हैं । यह प्रश्न मन में उठना स्वाभाविक है कि मनुष्य के लिए सुविधा जुटाने वाले तथा अपनी बुद्धि से इस संसार को मनुष्य के लिए  बेहतर बनाने वाले प्रथम वैज्ञानिक कौन थे ? जब विज्ञान को विज्ञान नहीं कहा जाता था क्या तब वैज्ञानिक नहीं होते थे ? सामान्यत: पुरातात्विक और साहित्यिक स्त्रोतों के माध्यम से हमें प्राचीन सभ्यताओं में प्राचीनतम वैज्ञानिक परम्पराओं के विषय में ज्ञान प्राप्त होता है तथा हम वैज्ञानिक विकास के विभिन्न चरणों एवं उपलब्धियों के विषय में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं । हमारे ज्ञान की सीमा यहीं तक है किंतु ज्ञान यहाँ पर समाप्त नहीं होता । हम चेतना से संपन्न मनुष्य हैं और मानव मस्तिष्क के विकास के प्रत्येक चरण का अध्ययन कर सकते हैं  । इस आधार पर उस मनुष्य के बारे में सोचिये जिसने लाखों वर्ष पूर्व अचानक हाथों से कोई पत्थर उछाल दिया था और वह किसी और जगह जाकर गिरा था । उसके मन में तुरंत यह विचार आया होगा ..  ‘अरे यह तो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकता है ‘ उसी तरह जब किसी जंगली जानकार को देखकर उसने पत्थर उछल दिया होगा और वह जानवर डर कर भाग गया होगा तब उसके मन में विचार आया होगा कि पत्थर उछालने से जानवर भाग जाता है  इस तरह पहली बार विचार करने वाला हर व्यक्ति उस युग का प्रथम वैज्ञानिक था ।
          अब आप ऐसे ही अन्य मनुष्यों के बारे में सोच सकते हैं , पहली बार जिन्होंने अग्नि का प्रयोग किया ,पहली बार जिन्होंने पत्थरों से औज़ार बनाए , पहली बार जिन्होंने छाल को वस्त्र की तरह इस्तेमाल किया,पहली बार जिन्होंने खाद्य एवं अखाद्य वस्तुओं की पहचान की, पहली बार जिन्होंने  पंछियों की तरह उड़ने की कोशिश की और इस कोशिश में पहाड़ से कूद कर मर गए ,या जो मछली की तरह तैरने की कोशिश में पानी में डूब गए  ,ऐसे सभी मनुष्य इस मनुष्य जाति के प्रथम वैज्ञानिक थे ।इसी तरह खानपान व अन्य आदतों की खोज करने वाले मनुषों के विषय में भी कहा जा सकता है । वह मनुष्य जिसने पहला ज़हरीला फल खाया और मरकर दुनिया को यह बता गया कि इसके खाने से मौत हो जाती है क्या दुनिया का पहला वैज्ञानिक डायटीशियन नहीं था ?

शरद कोकास 

रविवार, 30 जुलाई 2017

बीमार होने पर डॉक्टर के पास जाते हैं ना ?

सेलेरी बढ़ाने के लिए हम हड़ताल करते हैं ना 

यदि हम बीती सदियों के पन्ने पलटकर देखें तो हमें ज्ञात होगा कि  इस बात पर दार्शनिकों में सदा विवाद होता रहा है कि चेतना प्रमुख है या पदार्थ । इस आधार पर दार्शनिक दो खेमों में बंट गए , विश्व को चेतना की उपज मानने वाले प्रत्ययवादी और चेतना को भौतिक विश्व या प्रकृति की उपज मानने वाले भौतिक वादी । जब तक समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास नहीं हुआ और भौतिकवाद की महत्ता स्थापित नहीं हुई यह विवाद चलता रहा । हम आज भी दार्शनिक बहसों में नहीं उलझना चाहते । ऐसा हम दर्शन की ठीक- ठाक समझ न होने के कारण करते हैं । दर्शन को सामान्यतः  अध्यात्म से जोड़ कर देखा जाता है  । बिना सिर पैर  की बातें करने वाले के लिए  भी हम कहते हैं देखो वह फिलोसफ़र टाइप की बातें करता है ।वास्तव में दर्शन का अर्थ होता है जीवन और स्थितियों के प्रति आपकी समझ और विश्व को जानने के प्रति आपका दृष्टिकोण । दर्शन आपसे सवाल करता है , आप अपनी परिस्थितियों को समाज की उपज मानते हैं या भाग्य की उपज ? आप अपनी समस्याओं का समाधान इसी जगत में ढूँढते हैं या पारलौकिक जगत में ? यह प्रश्न आपके दर्शन से सम्बन्ध रखता है ।

         दर्शन की अवधारणा को लेकर यह समाज आध्यात्मिक या भाववादी दर्शन तथा  भौतिक वादी दर्शन में बंट गया । भौतिकवादी दर्शन के अनुसार यह प्रकृति ही सब कुछ है लेकिन भाववादियों ने आत्मा की महत्ता प्रकृति से ऊपर स्थापित की और हर समस्या का समाधान पारलौकिकता में ढूँढा । मनुष्य की नियति को लेकर उनके प्रिय वाक्य रहे .. 'यह तो सब पहले से ही लिखा है' ,'यह तो होना ही था' आदि ,जबकि भौतिकवादी जानता है कि उसकी समस्या का समाधान इसी जगत में है । अब आपकी आमदनी नहीं बढ़ रही तो आप उसके लिए  प्रयास करते हैं या उसे किस्मत के भरोसे छोड़ देते हैं ? बीमार होने पर डॉक्टर के पास जाते हैं या भगवान भरोसे छोड़ देते हैं ? किसी अपराधी को दण्ड दिलाने के लिए प्रयास करते हैं या सोचते हैं कि उसके भाग्य में जो लिखा है वही होगा ? इस तरह हम इन लौकिक सवालों के जवाब इसी लोक में ढूँढते हैं , यही भौतिकवाद है ।

शरद कोकास 

शनिवार, 29 जुलाई 2017

चेतना और पदार्थ की परिभाषा

हमारी त्वचा 

            चेतना का अर्थ आप जानते होंगे ,चेतना अर्थात हमें उद्वेलित करने वाली गर्व ,लज्जा,क्रोध,हर्ष, प्रेम, घृणा आदि भावनाएं ,हमारे नेत्र,नाक,कान, जिव्हा,स्पर्श आदि ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त अनुभूतियाँ ,और अंततः हमारे मस्तिष्क को सदा व्यस्त रखने वाले विचार यह सब चेतना है ।   चेतना से बाहर  जो कुछ भी है वह सब पदार्थ है ।  पदार्थ मतलब हमारे चारों ओर उपस्थित वस्तुएं या पिंड जिनमें भौतिकीय ,यांत्रिकीय रासायनिक तथा शरीर क्रियात्मक प्रक्रियाएं घटती रहती है उन्हें ही भौतिकीय परिघटनाएं  अथवा पदार्थ या भूतद्रव्य कहा जाता है । हमारी चेतना के निर्माण में इन ज्ञानेन्द्रियों की प्रमुख भूमिका है बिना इनकी सहायता के हम अनुभूतियों को अपने मस्तिष्क में दर्ज नहीं कर सकते .
             जैसे जैसे मनुष्य के शरीर का विकास होता है वह अन्य मनुष्यों के संपर्क में आकर विभिन्न कार्य सीखता है , रंग, ध्वनि व गंध में भेद करने लगता है इस तरह उसकी भावनाएं परिष्कृत होती हैं । जब उसका शरीर दुर्बल पड़ने लगता है ,अनुभूतियों और विचार करने की क्षमता पर भी उसका प्रभाव पड़ता है । इस तरह हम देखते हैं कि मनुष्य की चेतना का आलंबन उसका यह भौतिक शरीर ही है . अन्य प्राणियों से इतर मनुष्य के भीतर यह क्षमता है कि वह कुछ करने से पहले उसके बारे में सोच सकता है । मनुष्य की मुक्ति की आकांक्षा और समाज में व्याप्त शोषण और अन्याय के खिलाफ विचार करने की क्षमता और फलस्वरूप उपजे क्षोभ ने ही उसे शोषकों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए  प्रेरित किया । इतिहास गवाह है कि मेहनत कश इंसान और प्रभुत्व संपन्न वर्ग के बीच हमेशा से संघर्ष रहा है, उसकी भौतिक स्थितियों ने ही हमेशा उसे संघर्ष के लिए  प्रेरित किया है । इस संघर्ष में उसकी चेतना की प्रमुख भूमिका है ।
ज्ञानेन्द्रियों के विषय में और अधिक जानने के लिए यहाँ ज्ञानेन्द्रियों पर क्लिक करें (चित्र भारतकोश से साभार)



शरद कोकास 

शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

क्या आप भी अमर होना चाहते हैं

यद्यपि स्वयं का जन्म मनुष्य के वश में नहीं है न ही वह इसके लिए  उत्तरदायी है लेकिन जन्म लेने के पश्चात यह जीवन और यह शरीर उसे इतना प्रिय लगने लगता है कि लाख कष्टों के बावज़ूद वह इसे जीवित रखने का भरसक प्रयास करता है । यह स्वाभाविक भी है । वह उन समस्त सुख-सुविधाओं का उपभोग करना चाहता है जो उसके पूर्वजों द्वारा अनवरत परिश्रम से जुटाई गई हैं  । वह स्वयं भी इस मनुष्य जाति के विकास हेतु कटिबद्ध है , आनेवाली पीढ़ी के लिए  वह अधिक से अधिक  सुविधाएँ जुटाने  की इच्छा रखता है और उसके लिए नित नये आविष्क़ार कर भविष्य के मनुष्य की बेहतरी के लिए कुछ करना चाहता है । मनुष्य के भीतर सारी सुख - सुविधाओं के साथ जीते हुए अमर होने की एक सुप्त इच्छा भी होती है , । हालाँकि वह इस बात को बेहतर जानता  है कि न  कोई  अमर हो सकता है न कोई  इस जन्म में सुख पाने के विचार को स्थगित कर  अगले जन्म में सुख पाने की अभिलाषा कर सकता है । हमें जो चाहिए वह इसी एकमात्र जन्म में चाहिए क्योंकि मनुष्य या किसी भी प्राणी का सिर्फ एक ही जन्म होता है ।            

लेकिन यहीं कहीं कुछ चालाक लोग उसकी इस सुप्त इच्छा को भुनाते हुए उसे पाप - पुण्य , मोक्ष , पुनर्जन्म आदि के जाल में फंसाते हैं । वे उन्हें बरगलाते हुए कहते हैं कि भाइयों इस जन्म में आपको सुख मिले न मिले अगले जन्म में जरूर मिलेगा , बस जरा दान - पुण्य करें ।  यह वे लोग हैं जो आपको कर्म से विमुख करते हैं और भाग्यवादी बनाते हैं । यह लोग ईश्वर और धर्म के नाम पर आपका शोषण करते हैं । इस दिशा में विचार करने की आवश्यकता है कि यह स्थितियाँ किन कारणों की वज़ह से हैं  । वैसे भी हम विचारवान मनुष्य हैं ,अपने पूर्वजों की तरह इस दिशा में लगातार प्रयत्नशील हैं और मनुष्य होने के कर्तव्य का निर्वाह कर रहे हैं ।  एक मनुष्य के रूप में हर व्यक्ति एक चेतना संपन्न व्यक्ति है और एक सुदृढ़ मस्तिष्क का मालिक है ।

शरद कोकास 

बच्चों को आप बहला नहीं सकते कि आप उन्हें अस्पताल से लाये हैं

एक समय था जब मनुष्य इस बात को नहीं जानता था कि मनुष्य का जन्म कैसे होता है । वह अपनी अज्ञानता में हवा , बादल, पानी को इसका ज़िम्मेदार मानता था । हमारी पुराण कथाओं में ही नहीं विश्व के तमाम मिथकीय साहित्य में मनुष्य के जन्म लेने के ऐसे ही किस्से हैं ।  कहीं कोई  पेड़ से पैदा हुआ तो कोई  समुद्र से, कोई किसी यज्ञ से , कोई फल खाने से । महाभारत नामक महाकाव्य में ध्रतराष्ट्र  के सौ पुत्र घड़े से पैदा हुए । अपने पिता ज्यूस द्वारा गर्भवती माता मेटिस को निगल लिए जाने के बाद ग्रीक देवी एथीना अपने पिता का सर  फाड़कर पैदा हुई वहीं ग्रीक देवता डायनोसिस का जन्म अपने पिता ज्यूस की जांघ से हुआ । यद्यपि यह बहुत बाद की बात है लेकिन यौनिकता की ठीक से समझ न होने के कारण तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण न होने के कारण किस्से -कहानियों में जन्म के ऐसे ही कारणों का उल्लेख होता रहा । धार्मिक और पौराणिक ग्रंथों के लेखन के समय जो तत्कालीन समाज व्यवस्था थी उसकी पड़ताल न करते हुए हम सिर्फ चमत्कारों और लिखे जा चुके शब्दों में विश्वास करते रहे । इसके अलावा कुछ दृष्टांत सामाजिक व्यवस्था में जानबूझकर अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए भी गढ़े गए जैसे ऋग्वेद में ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण , भुजाओं से क्षत्रिय , जंघा से वैश्य तथा पांवों से शूद्र के जन्म लेने का दृष्टांत । इस वर्ण व्यवस्था का प्रभाव यह हुआ कि जातियों का निर्माण हुआ उनके अनुसार समाज में ऊँच -नीच जैसी अवधारणायें बनीं । सदियों तक समाज में निम्न वर्ग को उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता रहा और उनका शोषण व उत्पीड़न जारी रहा । इसकी वज़ह केवल यही रही कि हमने सामाजिक नियामकों की अवैज्ञानिक सोच को समाज के मस्तिष्क पर हावी होने दिया । आज भी हम लोग धर्म में आस्था के कारण ऐसे किस्सों और धारणाओं पर सहज विश्वास कर लेते हैं और यही नहीं अतार्किक रूप से उन्हें छद्म  वैज्ञानिकता से जोड़ने का प्रयास भी करते हैं ।
  
आज विज्ञान का युग है , आज स्कूल जाने वाले बच्चों तक को यह ज्ञात  है कि उनका जन्म कैसे हुआ है।   आप उन्हें फुसला नहीं सकते कि आप उन्हें अस्पताल से लाये हैं या कोई  परी आकर दे  गई  है , झूठ कहेंगे तो उल्टे  वे आपको समझा देंगे । लेकिन आप अपनी अंध आस्था के कारण बच्चों को भी उन झूठे किस्सों  में जबरिया विश्वास करने के लिए  बाध्य करते हैं ।  उनके सवालों के सही सही जवाब नहीं देते । यद्यपि एक ओर पढ़ा लिखा मनुष्य प्रजनन सम्बन्धी  वैज्ञानिक कारणों को भी जानता है वहीं दूसरी ओर उन पौराणिक किस्से -कहानियों में भी विश्वास करता है । इस दोहरी मानसिकता की वज़ह यही है कि धर्म और ईश्वर का भय उसे भयभीत करता है ।

शरद कोकास 

बुधवार, 26 जुलाई 2017

हम पैदा ही नहीं होते तो क्या होता



मिर्ज़ा असदुल्ला खां 'ग़ालिब' अपने समय  के महत्वपूर्ण शायर रहे हैं ।  ‘ इश्क़ वो आतिश है ग़ालिब ‘ इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया ‘ ग़ालिब छुटी शराब ‘ जैसी उनकी पंक्तियाँ मुहावरों और कहावतों की तरह उपयोग में लाई जाती हैं ।  ग़ालिब साहब का एक मशहूर शेर है “ न था कुछ तो ख़ुदा  था ,कुछ न होता तो ख़ुदा  होता, डुबोया मुझको होने ने ,ना होता मैं तो क्या होता । ” इस शेर में एक प्रश्न छुपा हुआ है । यह स्पष्ट  है कि हमारा अस्तित्व ही हमारे जीवन के समस्त क्रियाकलापों के लिए  उत्तरदायी है । हम हैं इसलिए  हमारे लिए यह दुनिया है, इस दुनिया के सारे प्रपंच हैं, सुख - दुख हैं, रिश्ते- नाते हैं, दोस्त-यार हैं, घर - परिवार है, समाज है,बाज़ार है ,फेसबुक है,व्हाट्स एप है यानि सब कुछ हैं । संसार में उपस्थित सब कुछ उन्हीं के लिए  है जो इस धरती पर जन्म ले चुके हैं। जो लोग इस दुनिया से विदा ले चुके हैं उनके लिए भी यह दुनिया उसी समय तक थी जब तक उनका अस्तित्व था। हमारे लिए  केवल उनसे जुड़ी हुई चीजें, उनके द्वारा किए गए कार्य और उनकी स्मृतियाँ हैं, और वे  भी हमारे लिए  तभी तक हैं जब तक हम इस दुनिया में हैं ।

            वस्तुत: गालिब ने यह शेर लाक्षणिक अर्थ में उस मनुष्य जाति के बारे में कहा है जिसने इस धरती पर लाखों वर्ष पूर्व जन्म लिया है ।  एक धार्मिक और ईश्वर में विश्वास करने वाला व्यक्ति मुसीबत आने पर न तो  स्थितियों को स्वीकार करता है न ही उनका तार्किक समाधान खोजता है अपितु मुसीबतों से घबराकर वह सीधे ईश्वर से प्रश्न करता है  हे भगवान ! तूने मुझे पैदा ही क्यों किया ? “  या कष्टों से घबराकर वह कहता है ,'ईश्वर मुझे उठा ले'  । जन्म और मरण की अवधारणाओं से परिचित होने के पश्चात यह मनुष्य केवल जन्म के बारे में ही नहीं अपितु मृत्यु के बारे में भी निरंतर विचार करता रहा है । सुख की स्थितियों में यह जीवन उसे इतना प्रिय लगता है कि वह सामान्यत: मृत्यु के विषय में विचार नहीं करता। किसी ईश्वरीय सत्ता में विश्वास न करने वाले लोग भी दैनन्दिन व्यवहार में इस तरह के साधारण वाक्यों का प्रयोग करते हैं और जीवन -  मरण जैसे शाश्वत प्रश्नों का समाधान अन्य क्रियाकलापों में ढूँढते हैं ।  

आपका 
शरद कोकास