गुरुवार, 7 सितंबर 2017

आप भी करोड़पति बनना चाहते हैं?


 
करोडपति बनाने की इच्छा किसकी नहीं होती लेकिन धर्म और परम्पराओं के नाम पर या अज्ञानतावश कई बार हम ऐसे विश्वास पाल लेते हैं जिनसे हमें कुछ मिलना तो दूर बल्कि हमारा आर्थिक नुकसान ही होता है । यद्यपि हम अज्ञानतावश उनसे अनजान रहते हैं ।

 एक प्रसंग मुझे याद आ रहा है ।  बरसों पहले दीपावली के समय की बात है । मैं घर से दूर किसी अन्य शहर में अपने मित्र के यहाँ था । वह मित्र अविवाहित था अकेला ही रहता था और गृह में कोई गृहलक्ष्मी नहीं थी लेकिन धन की देवी लक्ष्मी पर उसकी आस्था थी । पूजन संपन्न होने के पश्चात मैंने अपने मित्र से कहा चलो शहर की रौशनी देखकर आते हैं । हम लोग जब निकलने लगे तो मैंने उससे कहा "दरवाज़ा बन्द कर ताला तो लगा दो ।" उसने सहजता से कहा "आज के दिन लक्ष्मी कभी भी आ सकती है इसलिए द्वार पर ताला नहीं लगाया जाता ।" मैंने कहा “ और चोर आ गए  तो ? “ और सचमुच ऐसा ही हुआ । जब हम लोग लौटे तो चोर लक्ष्मीजी के पास रखी नकदी पर हाथ साफ कर चुके थे । वह बैचलर था सो उससे ज्यादा तो उसके घर में कुछ था भी नहीं । मैंने हँसते हुए कहा 'देख लो , यह क्यों भूल गए  कि जिस दरवाज़े से लक्ष्मी आ सकती है उससे जा भी तो सकती है ।'

मित्रों , यह बरसों पुरानी बात है अब शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो लक्ष्मी जी के आगमन की प्रतीक्षा में अपने घर के द्वार खुले छोड़कर चले जाए इसलिए कि अब सब जानते हैं धन मेहनत से कमाया जाता है ऐसे ही नहीं मिल जाता ।

हालाँकि अब भी लोग लाटरी में विशवास करते हैं , उम्मीद करते हैं कि उन्हें लाटरी मिल जाएगी , या कहीं से गडा हुआ धन मिल जाएगा । हम में से कई लोग हैं जो अभी भी करोडपति बनने की उम्मीद में जाने कहाँ कहाँ किन किन फर्जी कंपनियों में अपना धन लगाते रहते हैं । मोबाइल पर मेसेज आता है कि आपको लाटरी लग गई है , फलाने अकाउंट में इतना इतना पैसा जमा करा दीजिये और लोग करवा देते हैं फिर पता चलता है कि यह भी एक फ्राड था । क्या यह भी एक तरह का अन्द्धविश्वास नहीं है ?

तात्पर्य यह कि हमें  सायास विश्वास और अन्धविश्वास के इस दुष्चक्र से निकलना बहुत ज़रूरी है अन्यथा हम जीवन भर उन्हीं मान्यताओं और जर्जर हो चुकी परम्पराओं को ढोते रहेंगे और इसका नुकसान उठाते रहेंगे । हालाँकि इससे कोई विशेष नुकसान नहीं है , क्योंकि इतनी बुद्धि तो हम में है कि जैसे ही हमें नुकसान की सम्भावना दिखाई देती है हम सतर्क हो जाते हैं ।

शरद कोकास 

*(शरद कोकास की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक "मस्तिष्क की सत्ता" से)*

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गुरुवार, 31 अगस्त 2017

मुझे कुछ लोगों के पढ़े -लिखे होने पर शक हैं



डॉ नरेंद्र नायक अन्द्धश्रद्धा के खिलाफ़ प्रदर्शन करते हुए 
पढ़े-लिखे होने का मतलब सिर्फ अकादमिक शिक्षा प्राप्त करना नहीं होता । पढ़े-लिखे होने का अर्थ होता है वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न होना । मेरे कहने का यह तात्पर्य नहीं है कि जो पढ़े-लिखे नहीं है वे वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न नहीं होते । अफसोस इस बात का है कि एक ओर हम वैज्ञानिक मान्यताओं पर विश्वास करते हैं फिर भी परम्परा पालन या बड़ों का मन रखने हेतु बहुत सारी ऐसी बातें मानते हैं जो हम खुद नहीं मानना चाहते । जैसे...
 
सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण का कारण राहु-केतु द्वारा उन्हें निगला जाना मानते हैं जबकि हम जानते हैं यह पृथ्वी पर पड़ने वाली चन्द्रमा की छाया के कारण होता है ।

भूकम्प का कारण शेषनाग का हिलना मानते हैं जबकि हम जानते हैं यह प्लेट्स के खिसकने की वज़ह से होता है ।
  
करवा चौथ पर चांद की पूजा कर, पत्नी को प्रताड़ित करने वाले पति  के लिए भी  लम्बी उम्र की दुआयें मांगते हैं जबकि हम जानते हैं चन्द्रमा पृथ्वी का उपग्रह है और लोग उस पर पिकनिक मना कर आ चुके हैं ।

डीहायड्रेशन होने पर बच्चे की नज़र उतारते हैं जबकि हम जानते हैं यह पानी की कमी की वज़ह से होता है ।

हम वर्षा लाने के लिए यज्ञों में यकीन रखते हैं जबकि वर्षा होने का वैज्ञानिक कारण हम जानते हैं ।

डायन या टोनही कहकर किसी स्त्री को प्रताड़ित करते हैं जबकि हम जानते हैं भूत-प्रेत,जादू-टोना जैसा कुछ नहीं होता और कोई नारी टोनही नहीं होती ।

बिल्ली के रास्ता काट देने पर या किसी के छींक देने पर ठिठक जाते हैं जबकि हम जानते हैं बिल्ली अपने भोजन की तलाश में भटकती है सो सड़क पार करती है और छींक नाक में अवरोध उत्पन्न होने की वज़ह से आती है ।

हम भूत-प्रेत,पुनर्जन्म, लोक-परलोक, आत्मा,मोक्ष,पाप-पुण्य आदि में आँख मून्दकर विश्वास करते हैं जबकि हम जानते हैं मरने के बाद आदमी का कुछ शेष नहीं रह जाता ।

कितने उदाहरण दूँ ? शनिवार को शेविंग नहीं करते हैं ।
गुरूवार को नए कपडे नहीं पहनते हैं ।
घर से किसी के बाहर जाने के बाद झाड़ू नहीं लगाते हैं ।
और ताज़ा ताज़ा उदाहरण दूँ तो ग्लीसरीन के आँसू के सहारे बनाये जाने वाले धारावाहिकों और फिल्मों को देख कर ज़ार ज़ार रोते हैं और  डरावनी फ़िल्में देखकर डरते हैं  ।

*यह मत कहियेगा कि यह सब विज्ञान सम्मत है। इनके पीछे जो भी वैज्ञानिक कारण बताये जाते हैं उन्हें ही छद्म विज्ञान कहा जाता है । हम बरसों से सुनते आ रहे हैं मरते हुए एक आदमी को कांच के बॉक्स में रखा गया फिर जब वह मरा तो उसकी आत्मा कांच तोड़ते हुए बाहर निकल गई । ऐसा कोई प्रयोग दुनिया में हुआ ही नहीं । अगर कोई आपसे कहे तो उससे पूछें कि किन वैज्ञानिकों की उपस्थिति में दुनिया की किस प्रयोगशाला में यह प्रयोग हुआ है ? किसी अधिकृत वैज्ञानिक जर्नल में इन पर हुए शोध छपे हैं ? ऐसे ही आप हर बात के लिए सवाल कर सकते हैं । ज़ाहिर है इनके कारण और परिणाम में कोई सम्बन्ध नहीं है अर्थात बहुत कुछ मनगढ़ंत है । कुछ लोग यह भी कहते हैं कि उस समय के अनुसार इन अन्द्धविश्वासों  की उपयोगिता थी आज नहीं है , अगर ऐसा है तो इस समय क्यों इनके पीछे पड़े हुए हैं ?*

हालाँकि आजकल छद्म विज्ञानियों की एक नई  शाखा ने जन्म लिया है जो अपने छद्म विज्ञान पर आधारित शोधों को अपनी पत्रिकाओं में छापकर इन पर विश्वास दिलाने का प्रयास कर रही है । मीडिया अपने व्यावसायिक हितों के कारण इनके साथ है ऐसी बातों को बढ़ावा देने के कारण उसकी टी आर पी बढ़ती है जिसका सीधा सम्बन्ध उसकी कमाई से है । संतोष यह है कि छपे हुए शब्द पर विश्वास करने वाली  अधिसंख्य पढ़ी - लिखी जनता अभी इनके बहकावे में नहीं आई है ।

मेरा सवाल ऐसे ही लोगों से है जो अभी भी छद्म और यथार्थ के बीच भटक रहे हैं । ऐसे ना जाने कितने अन्धविश्वास हैं जिन्हें आपने अपने मस्तिष्क में स्थान दे रखा है । इन्हें  आप  दूर करना भी चाहते हैं लेकिन तथ्यों पर विश्वास करने में भय महसूस करते हैं । आप स्वयं को आधुनिक और पढ़े-लिखे कहलाना तो पसन्द करते हैं लेकिन जो परम्पराएं चली आ रही हैं उनकी पड़ताल नहीं करते । आस्था आपका  मार्ग अवरुद्ध करती है और आधा सच और आधा झूठ स्वीकार करते हुए उसी तरह जीवन भर दोहरे मानदंडों के साथ जीते हुए पारलौकिक सुख और मोक्ष की कामना करते हुए अंतत: मनुष्य जीवन से मुक्त हो जाते हैं । आपके पूर्वज भी ऐसे ही दुनिया से चले गए और आप भी चले जायेंगे ।

*सच सच बताइए क्या आप ऐसे ही त्रिशंकु की तरह जीते हुए मर जाना पसंद करेंगे ?*

सबा अकबराबादी ने फरमाया है ...

कब तक नजात पाएँगे वहम  यक़ीं से हम
उलझे हुए हैं आज भी दुनिया  दीं से हम



*(शरद कोकास की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक "मस्तिष्क की सत्ता" से)*

मंगलवार, 29 अगस्त 2017

किसको बना रहे हो बीडू...

*किसी बच्चे से पूछकर देखिये , पृथ्वी सूर्य के चक्कर लगाती है या सूर्य पृथ्वी के चक्कर लगाता है ?*

पता है वह आप को क्या जवाब देगा .. किस ज़माने में जी रहे हैं अंकल..हमें सब पता है ,सूर्य कैसे निकलता है चाँद कैसे निकलता है ,पानी कैसे बरसता है,पृथ्वी कैसे घूमती है ,भूकंप कैसे आता है , सुनामी कैसे आती है , ग्रहण कैसे लगता है , हम कैसे पैदा होते हैं और कैसे मरते हैं आदि आदि ।

फिर भी आप बच्चे को बताएँगे कि आसमान में एक इंद्र भगवान है जो पानी बरसाते हैं , ज्यूस नाम के देवता के पास बिजली का अस्त्र है जिसका नाम थंडर बोल्ट है । ( इस जनरेशन का बच्चा हो सकता है कहे . ..किसको बना रहे हो बीडू.. यह तो बीअर का नाम है ) फिर आप उससे कहेंगे कि मृत्यु के समय एक यमराज नाम का देवता आता है वह आपके प्राण ले जाता है तब वह ज़ोर से हँसेगा । अगर आप उससे कहेंगे कि शनि नामका देवता है जो नाराज़ हो जाए तो आपको परीक्षा में फेल कर देगा , बच्चा तुरंत अपने मोबाइल पर शनि ग्रह की तस्वीर बता देगा और कहेगा यह कोई देवता-वेवता नहीं है एक मामूली सा ग्रह है और फेल या पास कराने वाला शनि महाराज नहीं है , जो पढ़ेगा वही पास होगा । ज़माना बहुत आगे बढ़ चुका है भैया ..। अब के बच्चे न सान्ताक्लाज़ की कहानी पर यकीन करते हैं न राहू -केतु की ,न परी और राक्षसों की ।  

आधुनिकता के दौर में दिखाई देने वाला यह परिवर्तन अचानक नहीं हुआ है । प्रकृति से सम्बंधित रहस्यों की खोज बहुत धीरे धीरे संपन्न हुई और मनुष्य समाज वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न होता गया । उदाहरण के लिए  आज  से महज चार सौ साल पहले तक लोग इस बात में सब विश्वास रखते थे कि पृथ्वी स्थिर है और सूर्य उसके इर्द-गिर्द परिक्रमा करता है । उस समय तक का सारा धार्मिक साहित्य भी इसी अवधारणा पर आधारित है । लोग तत्संबंधी मान्यताओं को अंतिम  मानकर चुपचाप बैठे रहे लेकिन विज्ञान ने यहाँ भी पैठ लगाई  और इस सत्य की खोज की कि सूर्य अपने स्थान पर स्थिर है और पृथ्वी उसकी परिक्रमा करती है ।

*यदि आज आप उस पुरानी  मान्यता पर विश्वास करने के लिए  किसी बच्चे से भी ऐसा कहेंगे तो वह आपकी मूर्खता पर हंसेगा । लेकिन क्या आप जानते हैं , सिर्फ इसी एक बात को कहने के आरोप में तत्कालीन धर्माचार्यों द्वारा वैज्ञानिक गैलेलियो को कारावास में डाल दिया गया , ब्रूनो और कोपरनिकस को जान से मार डाला गया और जाने कितने लोगों को प्रताड़ित किया गया । लेकिन विज्ञान ने हार नहीं मानी और इसके बाद तो अंतरिक्ष विज्ञान में कितनी खोज हुई , कितने ही ग्रह ढूंढें गए , उनके परिक्रमा पथ ढूंढें गए , कितने ही सितारे खोजे गए , और आज तक यह सिलसिला जारी है ।*

मुश्ताक़ नक़वी साहब ने मनुष्य के इसी आत्मविश्वास पर कहा है

*ज़िन्दगी का निशाँ हैं हम लोग*
*ऐ ज़मीं आसमान हैं हम लोग*  


*(शरद कोकास की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक "मस्तिष्क की सत्ता" से)*

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गुरुवार, 24 अगस्त 2017

मनुष्य ने अपने देवताओं का निर्माण किस तरह किया

सर झुकाओगे तो पत्थर देवता हो जायेगा 


इतना मत चाहो उसे वो बेवफ़ा हो जायेगा 
(बशीर बद्र)

 मुसीबतें पहले भी कम नहीं थीं इंसान की ज़िन्दगी में । यह मानव जीवन का प्रारंभिक दौर था जब वह आदिम मनुष्य जन्म ,मृत्यु और प्रकृति के रहस्यों से नावाकिफ था , कार्य और कारण का सम्बन्ध स्थापित कर पाने की क्षमता उसमें नहीं थी । मतलब, वह नहीं जानता था कि धूप कैसे निकलती है , पानी कैसे बरसता है , बाढ़ या भूकंप कैसे आते हैं , सूरज चाँद कैसे उगते हैं , इन्सान कैसे जन्म लेता है और कैसे अचानक मर जाता है । जीवन उसके लिए सबसे बड़ा रहस्य था । उसे पता ही नहीं चलता था , कब बीमारियाँ और प्राकृतिक विपदायें उसे घेर लेती थीं और वह असमय ही काल के गाल में समा जाता था ।  

जब उसे पता ही नहीं था कि यह सब कैसे घटित होता है तो कारण के अभाव में उसने मन ही मन यह मान लिया कि ऐसा होने के पीछे ज़रूर कोई न कोई है । फलस्वरूप अपने जीवन में जन्म  से लेकर भूख ,बीमारी और शिकार प्राप्त करने की स्थितियों और अंततः मृत्यु तक में वह किसी अज्ञात शक्ति की कल्पना करने लगा । ऐसा होने के फलस्वरूप ऐसी अनेक मान्यताओं ने उसके जीवन में अपना स्थान मज़बूत कर लिया जिनका वास्तविकताओं से कोई सम्बन्ध नहीं था । उसने अपने विवेकानुसार जीवन को सुरक्षित रूप से संचालित करने के लिए अनेक मान्यताएँ गढ़ लीं । मानने का अर्थ ही मान्यता  है ।


*यह प्रारंभिक मानव हर घटना को अत्यंत आश्चर्य भाव से देखता था तथा हर आश्चर्य के पीछे उसे किसी अज्ञात शक्ति का भास होता था । आसमान से पानी बरसता देखता तो उसे लगता वहाँ ऊपर कोई है जो पानी फेंक रहा है या बिजली चमका रहा है , भूकंप आता तो उसे लगता ज़मीन के नीचे कोई है जो उथल पुथल मचा रहा है , समुद्र से आने वाली सुनामी की ओर देखता तो उसे लगता कोई भीतर बैठा लहरों को उछल रहा है ,जंगल में लगी आग देखता तो लगता कोई है जो यह भीषण अग्निकांड कर रहा है । इस तरह उसके मन में इन अज्ञात शक्तियों के प्रति सर्वप्रथम भय पैदा हुआ और जब उन्होंने बहुत दिनों तक उसका कुछ नहीं बिगाड़ा बल्कि कुछ अच्छा ही किया तो फिर धीरे धीरे उनके प्रति श्रद्धा भी उत्पन्न हुई । आज भले ही हम इन सब बातों के वैज्ञानिक कारण जानते हों लेकिन आज  भी हम जब ईश्वर के बारे में सोचते हैं तो उसी आदिम मान्यता के अनुसार सोचते हैं कि वह एक ऐसी शक्ति है जो या तो हमारा अच्छा करता है या फिर हमारा बुरा करता है ।*

इन आसमानी शक्तियों को देवता मान लेने के बाद फिर उसकी निगाह छोटी छोटी चीज़ों की ओर गई । जैसे वह जिस प्राणी का शिकार करता या जिस पेड़ से फल या कंदमूल प्राप्त करता उसे भी अपना आराध्य मानने लगा आखिर उसकी भूख उससे शांत होती थी और प्रारंभिक मानव के पास सिवाय भूख मिटाने के और क्या काम था । बस खाना पीना और सोना । ( आज भी बहुत से लोग सिर्फ यही करते हैं ।) भय,निद्रा,मैथुन और आहार यह जैविक प्रवृत्तियाँ उसके भीतर थीं लेकिन न उसे भूख लगने का कारण पता था न जन्म लेने का । जब उसे अपने पैदा होने का कारण नहीं पता चला तो उसने मान लिया कि यह पशु- पक्षी,पेड़ ,पर्वत या नदी ही उसके पूर्वज हैं और इन्हीं से उसके वंश की उत्पत्ति हुई है । पहाड़ों की गुफाओं में वह रहता था पहाड़ उसे आसरा देता था , नदी जल देती थी , पेड़ फल और छाँव देते थे ,प्राणी अपना मांस देते थे , सो यह सब उसके देवता होते गए ।

कालांतर में जब सम्पूर्ण मानवशास्त्र का अध्ययन हुआ तो उसके इन आराध्य देवताओं को टोटम कहा गया । आज भी आदिम समाज में ऐसे टोटेम का बहुत महत्त्व है जैसे बंगाल के संथाली कबीले के लोग अपना टोटेम जंगली हंस या बतख को मानते हैं और अपने पूर्वजों को हंस के अंडे से उत्पन्न मानते हैं ।  जिस पेड़ से उन्हें फल मिलते थे या जिस जानवर का वे मांस खाते थे वे भी उनके टोटेम थे । किसी का टोटेम पीपल है किसी का नीम , किसी का भालू, किसी का हिरण किसी का खरगोश ।

इस दौरान एक अजीब बात और हुई । जैसे कहीं कहीं पर टोटेम जीवों का मांस खाना या टोटेम पेड़ों के फल खाना सही माना जाता था इसलिए  कि वे प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे इसके विपरीत जहाँ इनकी संख्या नगण्य थी वहां इनका सेवन निषिद्ध था । कहीं किसी प्राणी का सिर खाना निषिद्ध था कहीं किसी का पैर । आज भी कई घरों में कुछ चीजें ,वनस्पति या जीव खाने की मनाही होती है उसका कारण यही मान्यता है जो सहस्त्राब्दियों से चली आ रही है । कई जातियों में ऐसे ही कई प्राणियों या पेड़ों को कुलदेवता माना जाता है । सांप, बिच्छू ,बन्दर, भालू , कच्छप भी कुछ कबीलों के टोटेम थे इसलिए कि या तो वे उनके लिए  संहारक थे अथवा उनकी रक्षा करते थे । यह टोटेम वाद आदिम अर्थव्यवस्था में धर्म का ही एक रूप था । कालांतर में पूरी की पूरी जातियाँ ,वंश या कबीले भी इनके नाम से बने ।

*आज हम न सिर्फ प्रजनन शास्त्र के बारे में जानते हैं ,मानवशास्त्र के बारे में जानते हैं , बल्कि इनकी बहुत सारी शाखाओं का अध्ययन भी कर रहे हैं , सो यह सब कुछ कहानी की तरह ही लगता है बावज़ूद इसके हम अब भी इन मान्यताओं में ख़ुद को जकड़े हुए हैं ।*

*बशीर बद्र साहब के शेर का अर्थ समझ गए होंगे? इंसान ने इसी तरह पत्थर को इतना चाहा कि उसे देवता मान लिया और फिर प्रकृति रूपी उस देवता का इतना शोषण किया कि वह उससे रूठ गया , आज भी हम प्रकृति के साथ यही कर रहे हैं ना ? चाहत का दूसरा नाम दोहन भी है । कर लीजिये जितना चाहें .. कल को न ये नदियाँ रहेंगी न पहाड़ ,न पेड़ पौधे ना ऑक्सीजन , न पेट्रोल ..सब बेवफ़ा हो जायेंगे।*  


*(शरद कोकास की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक "मस्तिष्क की सत्ता" से)*

गुरुवार, 3 अगस्त 2017

आज भी घरों में कुछ चीज़ें खाने की मनाही होती है जानते हैं किसलिए ?


सबसे पहले हम देखते हैं कि छद्मविज्ञान किसे कहते हैं :- छद्मविज्ञान या pseudoscience यह संप्रत्यय उस क्रियाकलाप या विधि के लिए प्रयुक्त होता है जो विधि वैज्ञानिक होने का आभास उत्पन्न करती है किन्तु सम्यक वैज्ञानिक विधि का अनुसरण नहीं करती । सम्यक वैज्ञानिक विधि वह होती है जो कार्य कारण सम्बन्ध पर आधारित होती है एवं जिसके लिए निरंतर प्रयोग किये जाते हैं । छद्मविज्ञानी जैसा शब्द उन लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो बिना किसी आधार के किसी भी बात को वैज्ञानिक कह देते हैं । जैसे आजकल सोशल मीडिया पर आपने देखा होगा , डायबिटीज़ की बहुत सारी दवाएं बताई जा रही हैं ,एक विधि में तो गेंहू को दस मिनट उबालकर अंकुर निकालने के लिए कहा गया है । कोई भी यह जान सकता है कि उबलने के बाद अंकुर नहीं निकलते । इस तरह की सोच वाले व्यक्ति को हम यदि मानसिक रूप से विकलांग कहें तो क्या हर्ज़ है ? वैसे मनुष्य के मस्तिष्क की विकलांगता का सिलसिला बहुत पुराना नहीं है लेकिन विज्ञान और छद्मविज्ञान को एक मान लेने के कारण सबसे अधिक नुकसान यह हुआ कि हमने विश्वास और अन्ध विश्वास मे अंतर करना छोड़ दिया ।

बहरहाल ऐसा होने के फलस्वरूप ऐसी अनेक मान्यताओं ने हमारे जीवन में अपना स्थान मज़बूत कर लिया जिनका वास्तविकताओं से कोई सम्बन्ध नहीं है। मानव जीवन के प्रारम्भिक दौर में जब मनुष्य जन्म ,मृत्यु और प्रकृति के रहस्यों से नावाकिफ था ,बीमारियाँ और प्राकृतिक विपदायें उसे घेर लेती थीं और वह असमय ही काल के गाल में समा जाता था । कार्य और कारण का सम्बन्ध स्थापित कर पाने की क्षमता उसमें नहीं थी फलस्वरूप अपने जीवन में जन्म ,मृत्यु से लेकर भूख ,बीमारी और शिकार प्राप्त करने की स्थितियों में वह किसी अज्ञात शक्ति की कल्पना करने लगा । उसने अपने विवेकानुसार जीवन को सुरक्षित रूप से संचालित करने के लिए अनेक मान्यताएँ गढ़ लीं ।

यह प्रारंभिक मानव हर घटना को अत्यंत आश्चर्य भाव से देखता था तथा हर आश्चर्य के पीछे उसे किसी अज्ञात शक्ति का भास होता था । वह जिसका शिकार करता या जिस पेड़ से फल या कंदमूल प्राप्त करता उसे भी अपना आराध्य मानने लगा । उसने यह भी माना कि यह पशु- पक्षी,पेड़ ,पर्वत या नदी उसके पूर्वज हैं और इन्हीं से उसके वंश की उत्पत्ति हुई है । इन्हें ही हम ‘टोटेम’ कहते हैं । जैसे बंगाल के संथाली कबीले के लोग अपना टोटेम जंगली हंस या बतख को मानते हैं और अपने पूर्वजों को हंस के अंडे से उत्पन्न मानते हैं । जिस पेड़ से उन्हें फल मिलते थे या जिस जानवर का वे मांस खाते थे वे भी उनके टोटेम थे । कहीं कहीं पर टोटेम जीवों का मांस खाना या टोटेम पेड़ों के फल खाना सही माना जाता था इसलिए कि वे प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे इसके विपरीत जहाँ इनकी संख्या नगण्य थी वहां इनका सेवन निषिद्ध था । इसीलिए आज भी कई घरों में कुछ चीजें या जीव खाने की मनाही होती है । सांप बिच्छू भी कुछ कबीलों के टोटेम थे इसलिए कि या तो वे उनके लिए संहारक थे अथवा उनकी रक्षा करते थे । यह टोटेम वाद आदिम अर्थव्यवस्था में धर्म का ही एक रूप था ।

शरद कोकास

बुधवार, 2 अगस्त 2017

आपकी जेब में मोबाइल की जगह रिवोल्वर हो तो ?

गूगल से साभार 

आजकल धर्म और संस्कृति के नाम पर यह भ्रम उत्पन्न किया जा रहा है कि जो कुछ प्राचीन है वही अंतिम है । विडम्बना यह है कि यह भ्रम उत्पन्न करने वाले स्वयं नवीनता का उपभोग करते हैं  और अपने अनुयायियों को इसका निषेध करने के लिए  कहते हैं  । ए सी में बैठकर प्रवचन करने वाले और विज्ञान द्वारा प्रदत्त तमाम सुविधाओं का उपभोग करते हुए विज्ञान का ही निषेध करने वाले  तथाकथित बाबाओं को हम इसी श्रेणी में रख सकते हैं । वस्तुतः ज्ञान अपने आप में परिपूर्ण होता है और उसकी बात अंतिम होती है ,इसके विपरीत विज्ञान किसी बात को अंतिम नहीं  मानता है और प्राचीन की नये सन्दर्भों में व्याख्या करता है इसलिए  कि यह प्रयोगों और परिणाम पर आधारित होता है ।

विज्ञान क्या है यह जाने बगैर हम किसी भी बात को विज्ञान से जोड़ देते हैं और उसे ही अंतिम सत्य मान लेते हैं जबकि विज्ञान स्वयं उसे अंतिम सत्य नहीं मानता । हम विज्ञान और छद्म विज्ञान में अंतर नहीं कर पाते इसका कारण यही है कि अभी हमने विज्ञान को ही सही तरीके से नहीं जाना है । यह जानने के लिए  हमें विज्ञान क्या है इस बारे में कुछ बातें जानना जरुरी है । विज्ञान पर हमारी आस्था कम होने के कुछ कारण और भी हैं ।

जैसे कि मोबाइल का आविष्कार हमें इसलिए  अच्छा लगता है कि यह हमारे काम की वस्तु है लेकिन वहीं बम और बंदूकों के आविष्कार से हमें डर लगता है क्योंकि हम जानते हैं कि यह हमारे विनाश के लिए  हैं । आज बहुत सी  साम्राज्यवादी  और पूंजीवादी  ताकतें विज्ञान का अपने हित में उपयोग कर रही हैं वे मनुष्यता के विनाश के लिए  इसका उपयोग कर रही हैं जो मनुष्य को विज्ञान द्वारा मिलने वाली सुविधाओं की तुलना में  उस पर अधिक हावी हैं । विज्ञान वस्तुतः अवलोकन ,अध्ययन ,परीक्षण , तथा प्रयोगों के माध्यम से प्राप्त किसी विषय का क्रमबद्ध ज्ञान है । प्रकृति में प्रारंभ से ही समस्त चीज़ें बिखरी हुई हैं । मनुष्य ने अपनी आवश्यकता के तहत उन वस्तुओं का उपयोग करना प्रारंभ किया । जीवन को बेहतर बनाने की दिशा में उसने उपलब्ध संसाधनों का दोहन किया फलस्वरूप उसने अनेक वस्तुओं का अविष्कार किया । अपनी परिकल्पना को मूर्त रूप देते हुए उसने ऐसी अनेक विधियों का विकास किया जो उसके जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं को हासिल करने में उसे सुविधा प्रदान करती थीं । विज्ञान का जन्म ही उत्पादन, लागत और समय में कमी लाने के लिए  हुआ है ।

इस तरह विज्ञान एक विशिष्ट अध्ययन पद्धति है जो व्यक्ति की प्रश्नाकुलता का समाधान करती है , घटनाओं के मूल में जो कारण  हैं उनकी खोज करती है , उनका क्रमबद्ध , तर्कसंगत बोध प्रस्तुत करती है जिसका प्रयोगों के माध्यम से परीक्षण किया जा सकता है । विज्ञान के सिद्धांत इन्हीं  प्रयोगों पर आधारित होते हैं जिन्हें सुरक्षित रखा जाता है । यह कई असफल प्रयोगों के बाद होता है जिनका ध्यान रखते हुए वैज्ञानिकों की अगली पीढ़ी इन्हीं  सिद्धांतों पर काम करती है । जो प्रयोग सफल हो चुके हैं उन्हें दोहराया नहीं जाता ।  विज्ञान मानता है कि हर बात के पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होता है और उसका एक निश्चित परिणाम होता है । अगर हम कारण और परिणाम में सम्बन्ध नहीं देखते हैं तो वह विज्ञान के अंतर्गत नहीं आएगा । इसी कारण इतिहास के नये अर्थ उद्घाटित होते  हैं और पुराने अनुभव तथा नये ज्ञान की रोशनी में भविष्य का मार्ग प्रशस्त होता है ।

शरद कोकास  



मंगलवार, 1 अगस्त 2017

आज के बच्चों का आई क्यू अधिक क्यों है

अलबर्ट आइन्स्टीन 
फिर आज का वैज्ञानिक कौन है ? वही जिसने नई नई मशीनें बनाईं , मोबाईल बनाया ,कंप्यूटर बनाया ,जो मनुष्य रॉकेट को अंतरिक्ष में भेज कर नये नये ग्रहों पर पहुंच रहा है और वहाँ बस्ती बसाने के स्वप्न देख रहा है वह आज का वैज्ञानिक है । भले ही आज हम पेड़ लुढ़का कर चक्के का आविष्कार करने वाले उस मनुष्य को उस काल का वैज्ञानिक न माने लेकिन उसके योगदान की उपेक्षा तो नहीं की जा सकती ।  हम उन सभी वैज्ञानिकों के ऋणी हैं जिन्होंने मानव जाति के उत्थान में अपना योगदान दिया । । मानव जीवन में विकास सम्बन्धी समस्त क्रांति पीढ़ी दर पीढ़ी उसके मस्तिष्क में दर्ज़ होती रही है । अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए वह मस्तिष्क की क्षमता का उपयोग कर नित नये आविष्कार करता रहा है ।

आज दस-बारह साल का एक बच्चा मनुष्य द्वारा किये जाने वाले वह तमाम कार्य कर लेता है जिन्हें सीखने में हमारे पूर्वजों को लाखों साल लगे । आप कहते हैं ना बच्चों का आई क्यू बढ़ गया है , वह इसी वज़ह से है कि हर पीढ़ी ने अपनी पिछली पीढ़ी से उसके द्वारा संचित यह ज्ञान ग्रहण किया है जो उसे उसकी पिछली पीढ़ियों से मिला इस तरह उसमे गुणात्मक वृद्धि हुई .

पृथ्वी पर जन्म लेने के बाद मनुष्य निरंतर प्रयोग करता गया और पिछले अनुभव के आधार पर पुराने को छोड़ नये को अपनाता गया । लेकिन सभ्यता के विकासक्रम में धीरे धीरे यह मनुष्य दो भागों में बँट गया कुछ लोग तो अपने पुरखों की तरह नवीनता की तलाश में जुट गए और कुछ ने अपने पूर्वजों द्वारा प्रदत्त ज्ञान को अंतिम मान कर संतोष कर लिया । इसका कारण यह नहीं था कि वे अपने जीवन के प्रति पूर्णतया संतुष्ट थे या उन्हें नवीनता की आवश्यकता ही नहीं थी लेकिन संभवतः वे यथास्थितिवादी थे । वे नवीनता और पुरातनता दोनों को एकसाथ स्वीकार करते रहे । आज उनका वंशज आधुनिक मनुष्य भी इन्ही दोनों का घालमेल बनकर रह गया है । विडम्बना यह है कि आज वह जहाँ नये को स्वीकार कर रहा है वहीं बगैर उनकी प्रासंगिकता परखे पुराने विश्वासों को भी साथ लिए चल रहा है ।

ऐसे लोग आज भी हैं जो एक ओर टेस्ट ट्यूब बेबी के जन्म के चिकित्सकीय विज्ञान से परिचित है वहीं दूसरी ओर प्राचीन ग्रंथों और धार्मिक मान्यताओं के आधार पर इस बात में भी विश्वास करते हैं कि स्त्री, सूर्य की रोशनी से या हवा मात्र के संसर्ग से संतान को जन्म दे सकती है । एक ओर वह विज्ञान को भी मानते हैं और दूसरी ओर चमत्कारों में भी विश्वास रखते हैं ।

ऐसा क्यों है ? दरअसल मानव मस्तिष्क में कार्यरत इस दोहरी प्रणाली में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है इसलिए कि ज्ञान और विज्ञान दोनों ही उसने अपने पूर्वजों से जस का तस पाया है । जिन मनुष्यों ने विरासत में प्राप्त इस ज्ञान की विवेचना कर नये प्रयोगों के माध्यम से उसे खारिज किया है अथवा आगे बढ़ाया है और जो वास्तव में मनुष्य जाति के भविष्य के लिए चिंतित एवं प्रयासरत है वे मनुष्य ही मानव जाति का सच्चा प्रतिनिधित्व करते हैं । हम सच्चे वैज्ञानिक उन्हें ही कह सकते हैं ।

लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि शेष मनुष्य, मनुष्य कहलाने के हक़दार नहीं हैं । उन मनुष्यों का इसमें कोई दोष नहीं है । सैकड़ों वर्ष पूर्व ही उनके मस्तिष्क को विचार के स्तर पर पंगु बना दिया गया है ,उनसे सोचने समझने की शक्ति छीन ली गई है तथा धर्म एवं संस्कृति के नाम पर उनके भीतर यह भ्रम प्रस्थापित कर दिया गया है कि जो कुछ प्राचीन है वही अंतिम है ,वे आज भी यह अभिशाप जी रहे हैं ।

शरद  कोकास
1 अगस्त 2017  


सोमवार, 31 जुलाई 2017

दुनिया का पहला वैज्ञानिक और डायटीशियन कौन था

दुनिया के प्रथम वैज्ञानिक 
 वैज्ञानिक शब्द का अर्थ यदि आप शब्दकोश में ढूँढने जायेंगे तो आपको अनेक अर्थ मिलेंगे , अध्येता , अनुसंधानी , खोजी , तत्वज्ञानी , प्रमाण वादी , मीमांसक , विचारक , शास्त्री , साइंटिस्ट , विज्ञानी , अविष्कारक इत्यादि । विज्ञान एक ऐसा सम्प्रत्यय है जिसका उपयोग आज हम वारम्वार करते हैं । मानव जाति के विकास में विज्ञान के माध्यम से अपनी भूमिका का निर्वाह करने वाले मनुष्यों को हम वैज्ञानिक कहते हैं । यह प्रश्न मन में उठना स्वाभाविक है कि मनुष्य के लिए सुविधा जुटाने वाले तथा अपनी बुद्धि से इस संसार को मनुष्य के लिए  बेहतर बनाने वाले प्रथम वैज्ञानिक कौन थे ? जब विज्ञान को विज्ञान नहीं कहा जाता था क्या तब वैज्ञानिक नहीं होते थे ? सामान्यत: पुरातात्विक और साहित्यिक स्त्रोतों के माध्यम से हमें प्राचीन सभ्यताओं में प्राचीनतम वैज्ञानिक परम्पराओं के विषय में ज्ञान प्राप्त होता है तथा हम वैज्ञानिक विकास के विभिन्न चरणों एवं उपलब्धियों के विषय में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं । हमारे ज्ञान की सीमा यहीं तक है किंतु ज्ञान यहाँ पर समाप्त नहीं होता । हम चेतना से संपन्न मनुष्य हैं और मानव मस्तिष्क के विकास के प्रत्येक चरण का अध्ययन कर सकते हैं  । इस आधार पर उस मनुष्य के बारे में सोचिये जिसने लाखों वर्ष पूर्व अचानक हाथों से कोई पत्थर उछाल दिया था और वह किसी और जगह जाकर गिरा था । उसके मन में तुरंत यह विचार आया होगा ..  ‘अरे यह तो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकता है ‘ उसी तरह जब किसी जंगली जानकार को देखकर उसने पत्थर उछल दिया होगा और वह जानवर डर कर भाग गया होगा तब उसके मन में विचार आया होगा कि पत्थर उछालने से जानवर भाग जाता है  इस तरह पहली बार विचार करने वाला हर व्यक्ति उस युग का प्रथम वैज्ञानिक था ।
          अब आप ऐसे ही अन्य मनुष्यों के बारे में सोच सकते हैं , पहली बार जिन्होंने अग्नि का प्रयोग किया ,पहली बार जिन्होंने पत्थरों से औज़ार बनाए , पहली बार जिन्होंने छाल को वस्त्र की तरह इस्तेमाल किया,पहली बार जिन्होंने खाद्य एवं अखाद्य वस्तुओं की पहचान की, पहली बार जिन्होंने  पंछियों की तरह उड़ने की कोशिश की और इस कोशिश में पहाड़ से कूद कर मर गए ,या जो मछली की तरह तैरने की कोशिश में पानी में डूब गए  ,ऐसे सभी मनुष्य इस मनुष्य जाति के प्रथम वैज्ञानिक थे ।इसी तरह खानपान व अन्य आदतों की खोज करने वाले मनुषों के विषय में भी कहा जा सकता है । वह मनुष्य जिसने पहला ज़हरीला फल खाया और मरकर दुनिया को यह बता गया कि इसके खाने से मौत हो जाती है क्या दुनिया का पहला वैज्ञानिक डायटीशियन नहीं था ?

शरद कोकास 

रविवार, 30 जुलाई 2017

बीमार होने पर डॉक्टर के पास जाते हैं ना ?

सेलेरी बढ़ाने के लिए हम हड़ताल करते हैं ना 

यदि हम बीती सदियों के पन्ने पलटकर देखें तो हमें ज्ञात होगा कि  इस बात पर दार्शनिकों में सदा विवाद होता रहा है कि चेतना प्रमुख है या पदार्थ । इस आधार पर दार्शनिक दो खेमों में बंट गए , विश्व को चेतना की उपज मानने वाले प्रत्ययवादी और चेतना को भौतिक विश्व या प्रकृति की उपज मानने वाले भौतिक वादी । जब तक समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का विकास नहीं हुआ और भौतिकवाद की महत्ता स्थापित नहीं हुई यह विवाद चलता रहा । हम आज भी दार्शनिक बहसों में नहीं उलझना चाहते । ऐसा हम दर्शन की ठीक- ठाक समझ न होने के कारण करते हैं । दर्शन को सामान्यतः  अध्यात्म से जोड़ कर देखा जाता है  । बिना सिर पैर  की बातें करने वाले के लिए  भी हम कहते हैं देखो वह फिलोसफ़र टाइप की बातें करता है ।वास्तव में दर्शन का अर्थ होता है जीवन और स्थितियों के प्रति आपकी समझ और विश्व को जानने के प्रति आपका दृष्टिकोण । दर्शन आपसे सवाल करता है , आप अपनी परिस्थितियों को समाज की उपज मानते हैं या भाग्य की उपज ? आप अपनी समस्याओं का समाधान इसी जगत में ढूँढते हैं या पारलौकिक जगत में ? यह प्रश्न आपके दर्शन से सम्बन्ध रखता है ।

         दर्शन की अवधारणा को लेकर यह समाज आध्यात्मिक या भाववादी दर्शन तथा  भौतिक वादी दर्शन में बंट गया । भौतिकवादी दर्शन के अनुसार यह प्रकृति ही सब कुछ है लेकिन भाववादियों ने आत्मा की महत्ता प्रकृति से ऊपर स्थापित की और हर समस्या का समाधान पारलौकिकता में ढूँढा । मनुष्य की नियति को लेकर उनके प्रिय वाक्य रहे .. 'यह तो सब पहले से ही लिखा है' ,'यह तो होना ही था' आदि ,जबकि भौतिकवादी जानता है कि उसकी समस्या का समाधान इसी जगत में है । अब आपकी आमदनी नहीं बढ़ रही तो आप उसके लिए  प्रयास करते हैं या उसे किस्मत के भरोसे छोड़ देते हैं ? बीमार होने पर डॉक्टर के पास जाते हैं या भगवान भरोसे छोड़ देते हैं ? किसी अपराधी को दण्ड दिलाने के लिए प्रयास करते हैं या सोचते हैं कि उसके भाग्य में जो लिखा है वही होगा ? इस तरह हम इन लौकिक सवालों के जवाब इसी लोक में ढूँढते हैं , यही भौतिकवाद है ।

शरद कोकास 

शनिवार, 29 जुलाई 2017

चेतना और पदार्थ की परिभाषा

हमारी त्वचा 

            चेतना का अर्थ आप जानते होंगे ,चेतना अर्थात हमें उद्वेलित करने वाली गर्व ,लज्जा,क्रोध,हर्ष, प्रेम, घृणा आदि भावनाएं ,हमारे नेत्र,नाक,कान, जिव्हा,स्पर्श आदि ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त अनुभूतियाँ ,और अंततः हमारे मस्तिष्क को सदा व्यस्त रखने वाले विचार यह सब चेतना है ।   चेतना से बाहर  जो कुछ भी है वह सब पदार्थ है ।  पदार्थ मतलब हमारे चारों ओर उपस्थित वस्तुएं या पिंड जिनमें भौतिकीय ,यांत्रिकीय रासायनिक तथा शरीर क्रियात्मक प्रक्रियाएं घटती रहती है उन्हें ही भौतिकीय परिघटनाएं  अथवा पदार्थ या भूतद्रव्य कहा जाता है । हमारी चेतना के निर्माण में इन ज्ञानेन्द्रियों की प्रमुख भूमिका है बिना इनकी सहायता के हम अनुभूतियों को अपने मस्तिष्क में दर्ज नहीं कर सकते .
             जैसे जैसे मनुष्य के शरीर का विकास होता है वह अन्य मनुष्यों के संपर्क में आकर विभिन्न कार्य सीखता है , रंग, ध्वनि व गंध में भेद करने लगता है इस तरह उसकी भावनाएं परिष्कृत होती हैं । जब उसका शरीर दुर्बल पड़ने लगता है ,अनुभूतियों और विचार करने की क्षमता पर भी उसका प्रभाव पड़ता है । इस तरह हम देखते हैं कि मनुष्य की चेतना का आलंबन उसका यह भौतिक शरीर ही है . अन्य प्राणियों से इतर मनुष्य के भीतर यह क्षमता है कि वह कुछ करने से पहले उसके बारे में सोच सकता है । मनुष्य की मुक्ति की आकांक्षा और समाज में व्याप्त शोषण और अन्याय के खिलाफ विचार करने की क्षमता और फलस्वरूप उपजे क्षोभ ने ही उसे शोषकों के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए  प्रेरित किया । इतिहास गवाह है कि मेहनत कश इंसान और प्रभुत्व संपन्न वर्ग के बीच हमेशा से संघर्ष रहा है, उसकी भौतिक स्थितियों ने ही हमेशा उसे संघर्ष के लिए  प्रेरित किया है । इस संघर्ष में उसकी चेतना की प्रमुख भूमिका है ।
ज्ञानेन्द्रियों के विषय में और अधिक जानने के लिए यहाँ ज्ञानेन्द्रियों पर क्लिक करें (चित्र भारतकोश से साभार)



शरद कोकास 

शुक्रवार, 28 जुलाई 2017

क्या आप भी अमर होना चाहते हैं

यद्यपि स्वयं का जन्म मनुष्य के वश में नहीं है न ही वह इसके लिए  उत्तरदायी है लेकिन जन्म लेने के पश्चात यह जीवन और यह शरीर उसे इतना प्रिय लगने लगता है कि लाख कष्टों के बावज़ूद वह इसे जीवित रखने का भरसक प्रयास करता है । यह स्वाभाविक भी है । वह उन समस्त सुख-सुविधाओं का उपभोग करना चाहता है जो उसके पूर्वजों द्वारा अनवरत परिश्रम से जुटाई गई हैं  । वह स्वयं भी इस मनुष्य जाति के विकास हेतु कटिबद्ध है , आनेवाली पीढ़ी के लिए  वह अधिक से अधिक  सुविधाएँ जुटाने  की इच्छा रखता है और उसके लिए नित नये आविष्क़ार कर भविष्य के मनुष्य की बेहतरी के लिए कुछ करना चाहता है । मनुष्य के भीतर सारी सुख - सुविधाओं के साथ जीते हुए अमर होने की एक सुप्त इच्छा भी होती है , । हालाँकि वह इस बात को बेहतर जानता  है कि न  कोई  अमर हो सकता है न कोई  इस जन्म में सुख पाने के विचार को स्थगित कर  अगले जन्म में सुख पाने की अभिलाषा कर सकता है । हमें जो चाहिए वह इसी एकमात्र जन्म में चाहिए क्योंकि मनुष्य या किसी भी प्राणी का सिर्फ एक ही जन्म होता है ।            

लेकिन यहीं कहीं कुछ चालाक लोग उसकी इस सुप्त इच्छा को भुनाते हुए उसे पाप - पुण्य , मोक्ष , पुनर्जन्म आदि के जाल में फंसाते हैं । वे उन्हें बरगलाते हुए कहते हैं कि भाइयों इस जन्म में आपको सुख मिले न मिले अगले जन्म में जरूर मिलेगा , बस जरा दान - पुण्य करें ।  यह वे लोग हैं जो आपको कर्म से विमुख करते हैं और भाग्यवादी बनाते हैं । यह लोग ईश्वर और धर्म के नाम पर आपका शोषण करते हैं । इस दिशा में विचार करने की आवश्यकता है कि यह स्थितियाँ किन कारणों की वज़ह से हैं  । वैसे भी हम विचारवान मनुष्य हैं ,अपने पूर्वजों की तरह इस दिशा में लगातार प्रयत्नशील हैं और मनुष्य होने के कर्तव्य का निर्वाह कर रहे हैं ।  एक मनुष्य के रूप में हर व्यक्ति एक चेतना संपन्न व्यक्ति है और एक सुदृढ़ मस्तिष्क का मालिक है ।

शरद कोकास 

बच्चों को आप बहला नहीं सकते कि आप उन्हें अस्पताल से लाये हैं

एक समय था जब मनुष्य इस बात को नहीं जानता था कि मनुष्य का जन्म कैसे होता है । वह अपनी अज्ञानता में हवा , बादल, पानी को इसका ज़िम्मेदार मानता था । हमारी पुराण कथाओं में ही नहीं विश्व के तमाम मिथकीय साहित्य में मनुष्य के जन्म लेने के ऐसे ही किस्से हैं ।  कहीं कोई  पेड़ से पैदा हुआ तो कोई  समुद्र से, कोई किसी यज्ञ से , कोई फल खाने से । महाभारत नामक महाकाव्य में ध्रतराष्ट्र  के सौ पुत्र घड़े से पैदा हुए । अपने पिता ज्यूस द्वारा गर्भवती माता मेटिस को निगल लिए जाने के बाद ग्रीक देवी एथीना अपने पिता का सर  फाड़कर पैदा हुई वहीं ग्रीक देवता डायनोसिस का जन्म अपने पिता ज्यूस की जांघ से हुआ । यद्यपि यह बहुत बाद की बात है लेकिन यौनिकता की ठीक से समझ न होने के कारण तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण न होने के कारण किस्से -कहानियों में जन्म के ऐसे ही कारणों का उल्लेख होता रहा । धार्मिक और पौराणिक ग्रंथों के लेखन के समय जो तत्कालीन समाज व्यवस्था थी उसकी पड़ताल न करते हुए हम सिर्फ चमत्कारों और लिखे जा चुके शब्दों में विश्वास करते रहे । इसके अलावा कुछ दृष्टांत सामाजिक व्यवस्था में जानबूझकर अपना वर्चस्व स्थापित करने के लिए भी गढ़े गए जैसे ऋग्वेद में ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण , भुजाओं से क्षत्रिय , जंघा से वैश्य तथा पांवों से शूद्र के जन्म लेने का दृष्टांत । इस वर्ण व्यवस्था का प्रभाव यह हुआ कि जातियों का निर्माण हुआ उनके अनुसार समाज में ऊँच -नीच जैसी अवधारणायें बनीं । सदियों तक समाज में निम्न वर्ग को उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता रहा और उनका शोषण व उत्पीड़न जारी रहा । इसकी वज़ह केवल यही रही कि हमने सामाजिक नियामकों की अवैज्ञानिक सोच को समाज के मस्तिष्क पर हावी होने दिया । आज भी हम लोग धर्म में आस्था के कारण ऐसे किस्सों और धारणाओं पर सहज विश्वास कर लेते हैं और यही नहीं अतार्किक रूप से उन्हें छद्म  वैज्ञानिकता से जोड़ने का प्रयास भी करते हैं ।
  
आज विज्ञान का युग है , आज स्कूल जाने वाले बच्चों तक को यह ज्ञात  है कि उनका जन्म कैसे हुआ है।   आप उन्हें फुसला नहीं सकते कि आप उन्हें अस्पताल से लाये हैं या कोई  परी आकर दे  गई  है , झूठ कहेंगे तो उल्टे  वे आपको समझा देंगे । लेकिन आप अपनी अंध आस्था के कारण बच्चों को भी उन झूठे किस्सों  में जबरिया विश्वास करने के लिए  बाध्य करते हैं ।  उनके सवालों के सही सही जवाब नहीं देते । यद्यपि एक ओर पढ़ा लिखा मनुष्य प्रजनन सम्बन्धी  वैज्ञानिक कारणों को भी जानता है वहीं दूसरी ओर उन पौराणिक किस्से -कहानियों में भी विश्वास करता है । इस दोहरी मानसिकता की वज़ह यही है कि धर्म और ईश्वर का भय उसे भयभीत करता है ।

शरद कोकास 

बुधवार, 26 जुलाई 2017

हम पैदा ही नहीं होते तो क्या होता



मिर्ज़ा असदुल्ला खां 'ग़ालिब' अपने समय  के महत्वपूर्ण शायर रहे हैं ।  ‘ इश्क़ वो आतिश है ग़ालिब ‘ इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया ‘ ग़ालिब छुटी शराब ‘ जैसी उनकी पंक्तियाँ मुहावरों और कहावतों की तरह उपयोग में लाई जाती हैं ।  ग़ालिब साहब का एक मशहूर शेर है “ न था कुछ तो ख़ुदा  था ,कुछ न होता तो ख़ुदा  होता, डुबोया मुझको होने ने ,ना होता मैं तो क्या होता । ” इस शेर में एक प्रश्न छुपा हुआ है । यह स्पष्ट  है कि हमारा अस्तित्व ही हमारे जीवन के समस्त क्रियाकलापों के लिए  उत्तरदायी है । हम हैं इसलिए  हमारे लिए यह दुनिया है, इस दुनिया के सारे प्रपंच हैं, सुख - दुख हैं, रिश्ते- नाते हैं, दोस्त-यार हैं, घर - परिवार है, समाज है,बाज़ार है ,फेसबुक है,व्हाट्स एप है यानि सब कुछ हैं । संसार में उपस्थित सब कुछ उन्हीं के लिए  है जो इस धरती पर जन्म ले चुके हैं। जो लोग इस दुनिया से विदा ले चुके हैं उनके लिए भी यह दुनिया उसी समय तक थी जब तक उनका अस्तित्व था। हमारे लिए  केवल उनसे जुड़ी हुई चीजें, उनके द्वारा किए गए कार्य और उनकी स्मृतियाँ हैं, और वे  भी हमारे लिए  तभी तक हैं जब तक हम इस दुनिया में हैं ।

            वस्तुत: गालिब ने यह शेर लाक्षणिक अर्थ में उस मनुष्य जाति के बारे में कहा है जिसने इस धरती पर लाखों वर्ष पूर्व जन्म लिया है ।  एक धार्मिक और ईश्वर में विश्वास करने वाला व्यक्ति मुसीबत आने पर न तो  स्थितियों को स्वीकार करता है न ही उनका तार्किक समाधान खोजता है अपितु मुसीबतों से घबराकर वह सीधे ईश्वर से प्रश्न करता है  हे भगवान ! तूने मुझे पैदा ही क्यों किया ? “  या कष्टों से घबराकर वह कहता है ,'ईश्वर मुझे उठा ले'  । जन्म और मरण की अवधारणाओं से परिचित होने के पश्चात यह मनुष्य केवल जन्म के बारे में ही नहीं अपितु मृत्यु के बारे में भी निरंतर विचार करता रहा है । सुख की स्थितियों में यह जीवन उसे इतना प्रिय लगता है कि वह सामान्यत: मृत्यु के विषय में विचार नहीं करता। किसी ईश्वरीय सत्ता में विश्वास न करने वाले लोग भी दैनन्दिन व्यवहार में इस तरह के साधारण वाक्यों का प्रयोग करते हैं और जीवन -  मरण जैसे शाश्वत प्रश्नों का समाधान अन्य क्रियाकलापों में ढूँढते हैं ।  

आपका 
शरद कोकास