शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

विचार आते हैं लिखते समय नहीं - मस्तिष्क की कार्यप्रणाली

                                          मस्तिष्क की कार्यप्रणाली -7  

 प्लानिंग काम्प्लेक्स : मस्तिष्क की कार्य प्रणाली का एक और महत्वपूर्ण हिस्सा है योजना बनाना । विचारों का उन्नयन भी यहीं से होता है । वैचारिक क्षमता यहाँ विद्यमान रहती है । हमें ज्ञात है कि हमारा भोजन करने का समय नौ बजे है फलस्वरूप हम आठ बजे से ही भोजन पकाने की योजना बनाने लगते हैं । यदि हमने कुछ लोगों को खाने पर बुलाया है तो एक दिन पूर्व ही हम उसकी योजना बना लेते हैं । योजना बना कर कार्य करने से सुविधा रहती है और समय पर व्यर्थ की भाग दौड़ से हम बच जाते हैं । जीवन के अनेक महत्वपूर्ण कार्य शादी ब्याह , जन्मोत्सव आदि हम योजना बनाकर ही करते हैं । संतान की उत्पत्ति का कार्य भी आजकल योजना बनाकर ही किया जाता है ।
                 इसी प्रकार तर्क क्षमता भी मस्तिष्क के इसी हिस्से में मौजूद रहती है । जैसे मैं आप से कहूँ कि वहाँ धुआँ है तो तुरंत आपके मस्तिष्क में यह विचार जन्म लेगा कि फिर वहाँ आग भी होगी । यद्यपि विज्ञान के ऐसे अनेक प्रयोग हैं जहाँ धुएँ के लिये आग की ज़रूरत नहीं है । जिस प्रकार यहाँ से तर्क किये जाते हैं उसी प्रकार कुतर्क भी किये जाते हैं । कुतर्क का अर्थ यह होता है जिसका कोई प्रमाण नहीं होता । जैसे कि हम कहें गोरे आदमी की हड्डियाँ बनिस्बत काले के ज़्यादा सफेद होती होंगी ।
             विचार करना यह मस्तिष्क का महत्वपूर्ण कार्य है ।  हम कुछ भी काम  कर रहे हों सोच विचार करते रहते हैं । मस्तिष्क की यह विचार प्रणाली ही है जिसकी वज़ह से सब कुछ सम्भव होता है । मुक्तिबोध की प्रसिद्ध कविता है “ विचार आते है लिखते समय नहीं / पीठ पर बोझा ढोते हुए / कपडे पछींटते हुए “ हाँलाकि लिखते समय भी विचार तो आते ही हैं ,कुछ लोगों के साथ ऐसा नहीं होता फलस्वरूप वे बिना विचार के ही लिखते हैं । विचार आपको कहीं भी आ सकते हैं । अगर आप दफ्तर में हैं या किसी फंक्शन में हैं और बैठे बैठे ऊब रहे हैं तो मस्तिष्क की इसी जगह से विचार करते हैं कि घर कब जायेगें । इस तरह वैचारिक क्षमता यहाँ विद्यमान होती है  ।

उपसर्ग में प्रस्तुत है मुक्तिबोध की कविता - विचार आते हैं 

विचार आते हैं - 
लिखते समय नहीं 
बोझ ढोते वक़्त पीठ पर 
सिर पर उठाते समय भार 
परिश्रम करते समय

चांद उगता है व 
पानी में झलमिलाने लगता है 
ह्रदय के पानी में 

विचार आते हैं 
लिखते समय नहीं 
पत्थर ढोते वक़्त 
पीठ पर उठाते वक़्त बोझ 
साँप मारते समय पिछवाड़े 
बच्चों की नेकर फचीटते वक़्त !! 

पत्थर पहाड़ बन जाते हैं 
नक़्शे बनते हैं भौगोलिक 
पीठ कच्छप बन जाते हैं 
समय पृथ्वी बन जाता है ... 

रविवार, 21 नवंबर 2010

पत्नी को आदेश मस्तिष्क का यह भाग देता है

6 आज्ञा केन्द्र (Morter Area ) एक तरह से यह मस्तिष्क का प्रधान मंत्री कार्यालय है । लगभग सारे विभाग इसी कार्यालय के अंतर्गत आते हैं । योजना विभाग भी इसी मंत्रालय के  अधीन है । सभी शारीरिक हरकतों की योजनाएँ यहाँ बनती है । उदाहरणार्थ आप कम्प्यूटर पर काम कर रहे हैं । इतने में एक गुस्ताख मच्छर आपकी बाईं बाँह पर बैठता है और अपनी सूँड चुभोने लगता है । क्षण मात्र में रगों में बहते रक्त के माध्यम से यह सूचना आपके मस्तिष्क के सोमेटोसेंसरी एरिया में पहुँच जाती है और वहाँ से उससे भी कम समय में आज्ञा केन्द्र अर्थात प्रधानमंत्री कार्यालय में । वहाँ इस सूचना पर त्वरित कार्यवाही होती है और आपके शरीर की पुलिस फोर्स अर्थात हाथों के लिये आदेश ज़ारी होता है कि इसे भगाओ  । हाथों की मसल्स तुरंत एक्शन में आ जाती हैं दाया हाथ तुरंत उठता है और बायें हाथ तक पहुँच जाता है  और पटाक से मच्छर का मर्डर हो जाता है । हाँ यदि आपके मस्तिष्क में अहिंसा की प्रोग्रामिंग है और आप मच्छर ही क्या बेक्टेरिया और वाइरस की हत्या के भी खिलाफ हैं तो आप उसे केवल भगाकर ही संतुष्ट हो जाते हैं । इसके बाद आपके हाथ पुन: पूर्व में आदेशित कार्य सम्पन्न करने में लग जाते हैं ।
मच्छर के अलावा अन्य जीवों की हत्या में भी यही प्रक्रिया होती है । मच्छर बेचारे की गलती तो यह थी कि उसने आप को काटा हाँलाकि यह उसने अपनी भूख मिटाने के लिये किया लेकिन हम बिना किसी अपराध के साँप ,मूक पशु और मनुष्यों तक की हत्या कर डालते हैं ।
तात्पर्य यह कि मस्तिष्क़ के इस विभाग से सारे आदेश प्रसारित होते हैं जैसे आपको प्यास लगी हो और गला सूख रहा हो तो गले से रिक्वीज़ीशन मस्तिष्क तक जाती है , वहाँ पर यह तय किया जाता है कि पिछली बार जब प्यास लगी थी तो क्या किया गया था । बचपन में माँ द्वारा पानी पिलाने से लेकर खुद पानी पीने तक की स्मृतियाँ क्षण मात्र में दोहराई जाती हैं । वहाँ से यह फाइल आदेश विभाग में जाती है , जहाँ से आदेश होता है पानी पियो ,पाँवों को आदेश दिया जाता है फलस्वरूप हम उठते हैं और पानी के टैप तक या मटके या फ्रिज तक  जाते हैं । हाथों को आदेश दिया जाता है , बॉटल निकालो या  गिलास उठाओ और उसमें पानी लेकर मुँह तक ले जाओ , इस तरह हम कुछ क्षणों में ही पानी पी लेते हैं और अपनी प्यास बुझाते हैं  । लेकिन कुछ लोग कुर्सी पर बैठे बैठे पत्नी को ज़ुबानी आदेश देते है “ हमरे लिये पानी लाओ । " पत्नी के शरीर की श्रवण प्रणाली द्वारा यह आदेश उसके मस्तिष्क़ तक पहुँचता है और फिर उसके द्वारा पति को पानी पिलाये जाने की क्रिया हेतु नविन आदेश उसके मस्तिष्क द्वारा जारी होता है ।   इस तरह पत्नी को ऑर्डर देने का यह काम भी इसी मस्तिष्क से होता है यानि पहला ऑर्डर यथावत रहते हुए ज़ुबान के लिये दूसरा ऑर्डर जारी हो जाता है ।
इसी तरह बहुत देर बैठे रहने पर पैर अकड़ जाता है तो मस्तिष्क के इसी विभाग से पैर की मसल्स के लिये आदेश ज़ारी होता है “ कुछ हिलो डुलो भई “। हमारे समस्त बाह्य अंगों को मस्तिष्क के इसी केन्द्र से आदेश प्राप्त होते हैं । बावज़ूद इसके शरीर के भीतर की अनेक क्रियाएँ होती हैं जो बिना मस्तिष्क के आदेश के सम्पन्न होती हैं जैसे की दिल का धड़कना । ( चित्र गूगल से साभार ) 
उपसर्ग में प्रस्तुत है  
राधिका अर्जुन द्वारा बनाया गया 
शमशेर बहादुर सिंह की कविता पर 
यह यह कविता   पोस्टर ।

इसे पढ़ते हुए मेरे मन में प्रश्न आया कि किसीसे प्रेम करने के लिये भी हमारा मस्तिष्क हमें कोई आदेश देता है क्या, जिसके फलस्वरूप  हम अगले व्यक्ति से  कहते हैं .. मुझे प्रेम करो ..
क्या कहते हैं आप ? 


सोमवार, 15 नवंबर 2010

गर गले नहीं मिल सकता तो हाथ भी न मिला


             मस्तिष्क की कार्यप्रणाली

सोमेटोसेंसरी एरिया : मस्तिष्क का यह इंद्रीय संवेदों का केन्द्र है  । इस केन्द्र की कार्यप्रणाली को स्पष्ट करने के लिए मै आपको याद दिलाना चाहता हूँ एक मशहूर फ़िल्मी गीत की जो पिछले दिनों बहुत लोकप्रिय रहा है । यह एक आईटम सॉंग है .. बंगले के पीछे तेरी बेरी के नीचे  हाय रे काँटा लगा ..। इस मधुर गीत के रीमिक्स के दृश्य को कृपया याद न करें मैं केवल उस चुभन की ओर आपका ध्यान आकर्षित करवाना चाहता हूँ जो काँटा लगने पर होती है । हो सकता है काँटा चुभने का अनुभव आपको न हो लेकिन सुई या कोई नुकीली वस्तु चुभने का तो होगा ही । इस चुभन को हम मस्तिष्क के इसी केन्द्र द्वारा महसूस करते हैं ।
हमारे शरीर की त्वचा अत्यंत संवेदनशील होती है । इस बात का पता इससे भी चलता है कि कुछ लोग बैठे बैठे यहाँ वहाँ खुजाते रहते हैं । मस्तिष्क के इस केन्द्र तक शरीर के उस भाग से सूचना आती है और हाथ मस्तिष्क की आज्ञानुसार अपना काम करने कगता है । इस कार्यप्रणाली के कारण  जैसे ही हम कोई गरम या ठंडी चीज़ पकड़ते हैं या हमें मच्छर या कोई कीट काटता है तो हमे तुरंत पता चल  जाता  है । कोई हमें स्पर्श करता है तो हमें पता चल जाता है । यह बात अलग है कि कुछ स्पर्श सुखद होते हैं और कुछ दुखद । हाथ मिलाते हुए किसका हाथ कड़ा है और किसका हाथ नर्म है यह हमें यहीं से ज्ञात होता है । इसी तरह गले मिलने का सुख भी यहीं से मिलता है यह अलग बात है कि कोई गले मिलने के लिये गले मिलता है तो कोई गला काटने के लिये । अपने प्रिय से गले मिल कर हमें प्रसन्नता महसूस होती है । लेकिन कई लोग दिखावे के लिये भी गले मिलते हैं । ऐसे ही लोगों के लिये शायर जनाब बशीर बद्र ने लिखा है
      “ मोहब्बत  में  दिखावे  की  दोस्ती      मिला
       गर गले नहीं मिल सकता तो हाथ भी न मिला ।“
तो जनाब यह काँटा लगने ,मच्छर काटने, गले मिलने ,दर्द और खुजली आदि की अनुभूति हम मस्तिष्क के इसी इन्द्रीय संवेदों के केन्द्र से महसूस करते हैं । गाल पर ममत्व के दुलार का स्पर्श भी हम यहीं से महसूस करते है और गाल पर चाँटे का दुख भी यहीं से महसूस करते हैं । बचपन में यदि आपको मार पड़ी होगी तो उसे याद कीजिये , उस का दर्द आपने मस्तिष्क की इसी कार्यप्रणाली की वज़ह से महसूस किया था । 
यह भी एक अच्छी बात है कि हर अनुभूति संवेदना के स्तर पर हमारे मस्तिष्क में दर्ज हो जाती है । हम काँटे की चुभन जानते हैं इसलिये कंटक विहीन मार्ग से चलना चाहते हैं और दूसरों के लिए भी कामना करते हैं कि उनके मार्ग में कोई काँटा न आये ।  हम गर्म वस्तु या आग से जलने का कष्ट जानते हैं इसलिये आग से बचना चाहते हैं । उसी तरह हम स्पर्श या दुलार का सुख भी जानते हैं इसलिये बार बार उसे पाना चाहते हैं । 
( चित्र गूगल से साभार ) 

रविवार, 7 नवंबर 2010

भाईसाहब ज़रा ठीक से खड़े रहिये

 मस्तिष्क की कार्यप्रणाली - चार -  वातावरण के साथ शरीर का तालमेल 


                  शीत ऋतु का आगमन हो रहा है । बदलते हुए इस मौसम को हम अपने शरीर द्वारा महसूस कर रहे हैं । लेकिन जिसे हम महसूस करना कहते हैं वह वास्तव में शरीर द्वारा नहीं होता , शीत हो या गर्मी अनुभव करने की यह क्रिया हम अपने मस्तिष्क द्वारा ही सम्पन्न करते हैं । 
                         मस्तिष्क की इस कार्यप्रणाली द्वारा हम वातावरण के साथ अपना सामंजस्य स्थापित करते हैं । जैसे अपने शरीर को ठंड में सिकोड़ लेना और गर्मी मे फैलाना । वस्तुत: भौतिक रूप से हम ऐसा नहीं करते हैं क्योंकि हमारा शरीर लोहे का नहीं बना है और गर्मी से फैलने और ठंड से सिकुड़ने का नियम इस पर लागू नहीं होता है । लेकिन हम इसकी इच्छा रखते हैं । उदाहरण के रूप में याद कीजिये उन यात्राओं को जो आपने सर्दी , गर्मी , बरसात के अलग अलग मौसम में की होगी । गर्मी के दिनों में यात्रा करते हुए हम चाहते हैं कि हमारा सहयात्री हमसे दूर बैठे और हम थोड़ा फैल कर बैठ सकें । हम ऐसी स्थिति में अपने शरीर को भी थोड़ा फैलाने की कोशिश करते है । अपने कमीज़ के कॉलर को थोड़ा उपर कर लेते हैं और हवा आने दो के अन्दाज़ में यहाँ - वहाँ देखते हैं । 

हालाँकि यह नियम उस स्थिति में लागू नहीं होता जब आप वातानुकूलन में यात्रा कर रहे हों । लेकिन मैंने देखा है कि बहुत से लोग ए सी में कुछ देर बैठने के बाद असुविधा का अनुभव करने लगते हैं और वहाँ से बाहर निकल कर ही उन्हे चैन आता है । वैसे भी हमारे देश में जहाँ असंख्य आबादी खुले आसमान के नीचे रहती है , ए सी की सुविधा चंद लोगों को ही प्राप्त होती है । 
मस्तिष्क की इस कार्यप्रणाली की वज़ह से जैसे गर्मी के मौसम में हम थोड़ा फैलकर बैठना चाहते हैं इसके विपरीत ठंड में यात्रा करते हुए हम अपने आप में सिमट जाना चाहते हैं । बगल वाले यात्री से भी हमें कोई असुविधा नही होती कि वह कितना सटकर बैठा है । हाँ उसके शरीर से बदबू आ रही हो तो और बात है । हाँ कई पुरुष अवश्य ऐसे होते हैं जो ठंड हो या गर्मी स्त्री के समीप बैठने का सुख नहीं छोड़ना चाहते जब तक कि इसके लिये दुत्कारे न जायें । बस वगैरह में एकाध स्त्री यह बोलने का साहस कर ही लेती है “ भाईसाहब ज़रा ठीक से खड़े रहिये । “ लेकिन इसके लिये मस्तिष्क का यह विभाग दोषी नहीं है , इसका दोष मस्तिष्क के एक अन्य विभाग को दिया जा सकता है ,जो हम आगे चलकर देखेंगे । 

मस्तिष्क का यह विभाग इस तरह पूरे समय वातावरण के साथ शरीर का तालमेल बिठाने की कोशिश करता है । यह कार्य इस तरह से होता है कि हमें पता ही नहीं चलता ।
उपसर्ग में प्रस्तुत है मस्तिष्क की इसी कार्यप्रणाली से सम्बन्धित मेरी यह कविता -

मस्तिष्क के क्रियाकलाप – छह – सामंजस्य

लोहा अपने गुणधर्म में                                                                             
फैल जाना चाहता है उष्मा मिलते ही
अपने अणुओं में सिमट जाना चाहता है शीत पाकर

प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाये रखना
प्रकृति के घटकों का गुणधर्म है

पहाड़ों से आती हैं सर्द हवाएँ
और हम अपने भीतर कैद होने की कोशिश करते हैं
निकल जाना चाहते हैं देह से बाहर गर्म हवाओं में

इस देह का अधिष्ठाता है मस्तिष्क
स्वयं अपना अधिष्ठाता है जो
उसके संस्कारों में शामिल है
वातावरण के मुताबिक स्वयं को ढालना

यह गुलामी में भी जी सकता है
स्वीकार कर सकता है शोषण की स्थितियाँ
फटेहाली में भी खुश रह सकता है

लेकिन यहीं कहीं उपस्थित हैं विरोध के संस्कार
जैसे ठंड का विरोध करते हैं हम आग जलाकर
गर्मी से बचने के इंतज़ामात करते हैं
सूखना चाहते हैं हम बारिश में भीगकर भी

उसी तरह विरोध करना चाहते हैं हम
अपनी बदहाली का ।

                        - शरद कोकास 
 





छवि गूगल से व शरद के कैमरे से  साभार

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

माँ ही बताती है बचपन में कि यह तुम्हारे पिता है


मस्तिष्क की सत्ता लेखमाला - मस्तिष्क के क्रियाकलाप - हम किसी को कैसे पहचानते हैं - 

3 : प्रतिमा का शब्द में रुपांतरण : (Naming an object ) शब्द के छवि में रूपांतरण के ठीक विपरीत है छवि या प्रतिमा का शब्द में रूपांतरण । मस्तिष्क की इस कार्यप्रणाली द्वारा जैसे ही हम किसी वस्तु को या व्यक्ति को देखते हैं हमें तुरंत उसका नाम याद आ जाता है । दरअसल जब पहली बार हमें उस वस्तु या व्यक्ति का नाम बताया जाता है हमारे मस्तिष्क उसे रिकॉर्ड कर लेता है तथा दोबारा देखने पर हम तुरंत उसका नाम बता देते हैं । बचपन में हमें बताया जाता है बेटा यह चिड़िया है ,यह पेड़ है , यह आदमी है , यह औरत है , यह रोटी है , यह पानी है , यह मन्दिर है , यह मस्जिद है  । यहाँ तक कि क कमल का,ख खरगोश का वगैरह  भी इसी प्रक्रिया के फलस्वरूप हम याद करते हैं । रिश्तों की पहचान भी हमें इसी तरह कराई जाती है । माँ जैसी दिखाई देने वाली एक स्त्री जिसकी गोद में हम बड़े होते है हमारी माँ कहलाती है और फिर यह माँ हमारे पिता से हमारा परिचय करवाती है ।
            लेकिन यह प्रक्रिया स्थायी नहीं होती । जीवन में कई बार ऐसा होता है कि हमें बार बार याद करने पर भी किसी चीज का नाम याद नहीं आता यद्यपि वह नाम हमारी मेमोरी में रहता है । ऐसा ही लोगों के साथ भी होता है । अक्सर ऐसा होता है कि किसी समारोह में ,कहीं बाज़ार में हमारा कोई पुराना परिचित अचानक सामने आकर खड़ा हो जाता है और कहता है ..क्यों पहचाना ? “ हम शर्म के मारे कह तो देते हैं कि , हाँ पहचान लिया लेकिन याद नहीं कर पाते कि वह कौन है ।
ऐसी स्थिति में मस्तिष्क तेज़ी से अपना यह  काम शुरु करता है । मस्तिष्क की सर्च प्रणाली प्रारम्भ हो जाती है और यह तेज़ी से अपनी फाइलों में उस छवि का नाम ढूँढता है । और फिर अचानक किसी वस्तु को देखकर या अन्य किसी सन्दर्भ से हमें उसका नाम याद आ जाता है । मान लीजिये आपको नाम याद ही नहीं आया तो आप घर जाकर पत्नी से या किसी मित्र से पूछते है और उसके यह पूछने पर कि वह कैसा दिखता है आप कहते है .. वह कॉलेज वाले शर्मा जी जैसा दिखता है फिर तुरंत आपकी पत्नी या मित्र कहता है अच्छा तो वह पाण्डे जी होंगे .. और आप को उस व्यक्ति का नाम याद आ जाता है । यह बात अलग है कि इसके बाद आप पत्नी से पूछते है  “ लेकिन तुम उन्हे कैसे जानती हो ? “  और पत्नी जब तक यह नही कहती कि  “ वो मेरे मायके से है और मैं उन्हे भाई मानती हूँ “ , तब तक आपको चैन नही आता ।  
ऐसे ही किसी अनदेखी वस्तु के बारे में भी हम कहते है  कि वह अनदेखी चीज भी इसके या उसके जैसी दिखती है और आप उससे मिलती जुलती किसी वस्तु के बारे में बताते हैं  । मान लीजिये आपने जंगल में भेड़िया पहली बार देखा और आप को उस जानवर का नाम नही पता तो आप कहेंगे कि  “ एक जानवर मैने ऐसा देखा है जो कुत्ते जैसा दिखता है । “ इसलिये कि कुत्ता आपका जाना पहचाना जानवर है । इसीलिये हमें शेर ,बाघ , सिंह ,चीता ,तेन्दुआ या लकड़बग्घा एक जैसे दिखाई देते हैं । इसी तरह हमें सारे गोरे विदेशी एक जैसे दिखते हैं । वह अमेरिकी हो या ब्रिटिश हम उसे अंग्रेज़ ही कहते हैं । सारे अश्वेत नागरिकों को नीग्रो कहने का प्रचलन अभी अभी तक था । इसी तरह चीनी और जापानी भी हमें एक जैसे लगते हैं । यहाँ तक कि अपने देश में भी अनेक उत्तर भारतीय  हर दक्षिण भारतीय की विविध प्रांतों के आधार पर पहचान न कर पाने के कारण सभी को मद्रासी कहते हैं । 
लेकिन मस्तिष्क की पहचान करने की क्षमता के कारण अभ्यास करने पर  हम उनमें भेद कर सकते हैं । मस्तिष्क की यह कार्यप्रणाली जीवन भर बखूबी अपना काम करती है । हम नित नई चीज़ें देखते है और उनके साथ अपनी पहचान स्थापित करते हैं । हम देखी हुई हर वस्तु को एक नाम देते हैं , यह नाम हमारी अपनी भाषा में होता है । इस तरह नये बिम्बों के लिये नये शब्द बनते हैं । इसी प्रकार हम अपनी अन्य इन्द्रियों के माध्यम से भी जो ज्ञान प्राप्त करते हैं उन्हे इस कार्यप्रणाली द्वारा नाम देते हैं ।

उपसर्ग मे प्रस्तुत है मस्तिष्क की इसी कार्यक्षमता को आधार बनाकर लिखी गई मेरी यह कविता ---

 


मस्तिष्क के क्रियाकलाप –चार – पहचानना

मनुष्य का नाम मनुष्य नहीं था जब
मस्तिष्क का नाम भी मस्तिष्क नहीं था
नदी पेड़ चिड़िया इसी दुनिया में थे और
नदी पेड़ चिड़िया  नहीं कहलाते थे
गूंगे के ख्वाब की तरह बखानता था मनुष्य
वह सब कुछ जो दृश्यमान था

अनाम चित्रों से भरी थी मस्तिष्क की कलावीथिका
और मनुष्य उनक लिये शीर्षक तलाश रहा था

हवाओं ने उसे कुछ नाम सुझाये
धूप ने छाया में बोले कुछ शब्द
बारिश की बून्दों ने कुछ गीत गुनगुनाये
इस तरह नामकरण का सिलसिला शुरू हुआ
पहाड़ का नाम उसने पहाड़ रखा
और आसमान का आसमान
दिखाई देने वाली हर चीज़ के साथ
एक नाम जोड़कर उसने पहचान कायम की
और जिसे देख नहीं पाया
उसका नाम उसने ईश्वर रखा

यहीं से शुरू हुई रिश्तों के साथ उसकी पहचान
स्त्री सी दिखने वाली एक स्त्री उसकी माँ कहलाई
और एक पुरुष को पहचाना उसने पिता के रूप में
 
जानवरों में भेद करते हुए उसने
उन्हे बाँटा हिंसक और अहिंसक की श्रेणियों में
मस्तिष्क की इस कार्यप्रणाली को फिर उसने
मनुष्यों पर भी लागू किया  

हर दाढ़ी वाला उसे मुसलमान नज़र आया
चोटी जनेउवाला हिन्दू और पगड़ीधारी सिख
हर अश्वेत की पहचान उसने की अफ्रीकी के रूप में
सूटधारी को इसाई और गोरे को विदेशी जाना

युद्ध दंगों और चुनावों से इतर समय में ही
हमने मनुष्य के रूप में मनुष्य पहचाना ।
                       
  शरद कोकास 



( एक चित्र मेरे ममेरे भाई ,डॉ.आनंद शर्मा ,उनकी अमेरिकन पत्नी लुईस रोज़ व बिटिया लोरी लाई का , अन्य सभी चित्र गूगल से साभार )

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

राम कहने पर आपको किसका चेहरा याद आता है ?

2 : शब्दों का प्रतिमा में रुपांतरण : मस्तिष्क द्वारा किये जाने वाले अनेक कार्यों के अंतर्गत यह मस्तिष्क का एक और कार्य है । यह किस तरह होता है यह समझाने के लिए  मैं आपको कुछ शब्द दे रहा हूँ । जैसे ही आप उस शब्द को पढ़ेंगे आप को उस से जुड़ी प्रतिमा, इमेज या छवि याद आयेगी । जैसे मै कहता हूँ “ एक पेड़ । ” तो आपने जो भी पेड़ देखा होगा या जिस पेड़ की छवि आपकी स्मृति में होगी उस छवि की कल्पना आप करेंगे । हो सकता है बहुत से पेड़ आपने देखे हों लेकिन उनमें से कोई एक पेड़ ही आपको याद आयेगा । लेकिन मैं अगर कहूँ जंगल तो आपको बहुत से पेड़ों के अलावा पहाड़ , झरने या जंगल में जो कुछ भी आपने देखा हो याद आ जायेगा । हो सकता है कई लोगों को अब तक जंगल देखने का अवसर ना प्राप्त हुआ हो लेकिन अगर आपने जंगल को चित्र में देखा हो तो वह याद आयेगा ।उसी तरह मैं कहूंगा “ कम्प्यूटर “ तो आपको डेस्कटॉप या लैप टॉप , कम्प्यूटर का जो भी चित्र आपके मस्तिष्क मे होगा वह याद आ जायेगा ।
अब मैं आपसे कहता हूँ अपनी माँ को याद कीजिये । आपके मस्तिष्क में अपनी माँ की जो भी छवि है वह आपको दिखाई देगी । अब मैं आपसे कहूंगा श्रीमती ऐश्वर्या रॉय को याद कीजिये । जिस फिल्म में या चित्र में आपने उन्हे देखा होगा उस का आप स्मरण करेंगे । अब देखिये जैसे ही मैने माँ कहा आप सभी के मस्तिष्क में अपनी माता के चेहरों की छवियाँ उभरीं जो निश्चित रूप से एक दूसरे से अलग हैं इसलिये कि सगे भाई बहनों के अलावा सभी की मातायें अलग  अलग हैं । लेकिन मेरे ऐश्वर्या रॉय कहने पर एक ही चेहरे की छवि उभर कर आई । इस तरह हम बचपन से ही अपने मस्तिष्क में अंकित छवियों को एक पहचान दे देते हैं और जब भी उस पहचान से सम्बन्धित शब्द हम पढ़ते हैं या सुनते हैं वह छवि हमारे मानस में साकार हो जाती है ।
इसके विपरीत जिन छवियों की पहचान हमारे मस्तिष्क में शब्द के रूप में दर्ज़ नहीं है वह छवि हमें याद नहीं आयेगी, जैसे मै कहूँ  फ्लोरेंस नाईटिंगेल ‘, अब आप में से जिसने सेवा की इस मूर्ति का चित्र देखा होगा वे ही इसे याद कर सकेंगे । कई बार द्रश्य मध्यमों के द्वारा भी कुछ छवियाँ हमारे मस्तिष्क में आरोपित की जाती हैं जिन्हे हम सच समझने लगते हैं । जैसे कि मैं कहूँ “ राम “ तो आपको रामायण धारावाहिक में राम का अभिनय करने वाले अभिनेता अरुण गोविल का चेहरा नज़र आयेगा । इस धारावाहिक से पूर्व हम इस छवि को किस रूप में याद करते थे यह भी सोचने की बात है   एक और उदाहरण मान लीजिये मैं कहता हूँ “ एतो सबाक “ तो आप कहेंगे पता नहीं क्या कह रहा है और आप इस शब्द से कोई छवि निर्माण नहीं कर सकेंगे लेकिन जैसे ही मैं कहूंगा “ यह कुत्ता । “ आप के मस्तिष्क मे तुरंत कुत्ते की छवि आ जायेगी । भई मैने रशियन मे कहा था ‘ एतो सबाक ‘ यानि ‘ यह कुत्ता ‘ । इस तरह हम अपने सम्पर्क में दृश्य-श्रव्य माध्यम से आनेवाले हर शब्द की एक प्रतिमा निर्माण करते हैं यह कार्य मस्तिष्क के इस केन्द्र द्वारा सम्पन्न होता है ।   
उपसर्ग में प्रस्तुत है मस्तिष्क की इस क्षमता पर लिखी मेरी एक और कविता 

                          मस्तिष्क के क्रियाकलाप –तीन –कल्पना                         

    डार्करूम के अन्धेरे में तैरते
    अतीत और वर्तमान के तमाम चित्रों के साथ
    सैकड़ों चित्र भविष्य के तैरते हैं यहाँ ईथर में
    रूप रंग रस गन्ध और स्पर्श की अनुभूतियाँ
    यहाँ चित्रों में ढलती हैं
    आँखों के कैमरे में पलकों का शटर खुलता है
    और कैद हो जाता है सब कुछ  स्थायी रूप में

    फिर जॉर्ज बुश या ओबामा का नाम सुनते ही
    जेहन में उभरता है
    तथाकथित विश्वचौधरी का चेहरा
    अमिताभ  बच्चन का ज़िक्र होते ही
    एक एंग्री यंग मैन सम्वाद बोलता नज़र आता है
   कल्पना में शामिल होते हैं लोग दृष्य और वस्तुएँ
    जो कभी न कभी हमारे देखे सुने होते हैं
    अन्धों का हाथी ठीक इसी प्रक्रिया में
    खम्भे सूप और रस्सी में बदलता है  

     जैसे माँ शब्द सुनते या पढ़ते ही
    हमें याद आती है अपनी माँ
    जिसे हम होश सम्भालने के बाद पहचानते हैं
    माँ की कल्पना में वह छवि कहीं नहीं होती
    जिसमें हमे वह जन्म दे रही होती है
    या स्तनपान करा रही होती है
    ऐसी कल्पना तो देवताओं के लिये भी सम्भव नहीं

    यहाँ प्रकट होती है मस्तिष्क की सीमाएँ
   जिसकी क्षमता से किसी अन्य स्त्री के चित्र में
    माँ का चित्र आरोपित कर
    हम स्त्री में माँ का रूप देख सकते हैं
    यही तो है मस्तिष्क का कमाल
    जहाँ पढ़े हुए शब्दों
   और देखे सुने दृष्यों के आधार पर
   हम कल्पना कर सकते हैं आगत और विगत की
   पृथ्वी पर मनुष्य के जन्म की
   और मनुष्य के मन में जन्मी
   ईश्वर की कल्पना कर सकते हैं हम
    इसी मस्तिष्क से  

            -- शरद कोकास  

( चित्र : श्रीमती ऐश्वर्या राय , श्रीमती शीला कोकास , श्रीमती फ्लोरेंस नाइटिंगेल , श्री अरुण गोविल , गूगल से साभार )