यद्यपि
स्वयं का जन्म मनुष्य के वश में नहीं है न ही वह इसके लिए उत्तरदायी है लेकिन जन्म लेने के पश्चात यह जीवन
और यह शरीर उसे इतना प्रिय लगने लगता है कि लाख कष्टों के बावज़ूद वह इसे जीवित
रखने का भरसक प्रयास करता है । यह स्वाभाविक भी है । वह उन समस्त सुख-सुविधाओं का
उपभोग करना चाहता है जो उसके पूर्वजों द्वारा अनवरत परिश्रम से जुटाई गई हैं । वह स्वयं भी इस मनुष्य जाति के विकास हेतु
कटिबद्ध है , आनेवाली पीढ़ी के लिए वह अधिक
से अधिक सुविधाएँ जुटाने की इच्छा रखता है और उसके लिए नित नये आविष्क़ार
कर भविष्य के मनुष्य की बेहतरी के लिए कुछ करना चाहता है । मनुष्य के भीतर सारी
सुख - सुविधाओं के साथ जीते हुए अमर होने की एक सुप्त इच्छा भी होती है , ।
हालाँकि वह इस बात को बेहतर जानता है कि
न कोई
अमर हो सकता है न कोई इस जन्म में
सुख पाने के विचार को स्थगित कर अगले जन्म
में सुख पाने की अभिलाषा कर सकता है । हमें जो चाहिए वह इसी एकमात्र जन्म में
चाहिए क्योंकि मनुष्य या किसी भी प्राणी का सिर्फ एक ही जन्म होता है ।
लेकिन यहीं कहीं कुछ चालाक लोग उसकी इस
सुप्त इच्छा को भुनाते हुए उसे पाप - पुण्य , मोक्ष , पुनर्जन्म आदि के जाल में
फंसाते हैं । वे उन्हें बरगलाते हुए कहते हैं कि भाइयों इस जन्म में आपको सुख मिले
न मिले अगले जन्म में जरूर मिलेगा , बस जरा दान - पुण्य करें । यह वे लोग हैं जो आपको कर्म से विमुख करते हैं
और भाग्यवादी बनाते हैं । यह लोग ईश्वर और धर्म के नाम पर आपका शोषण करते हैं । इस
दिशा में विचार करने की आवश्यकता है कि यह स्थितियाँ किन कारणों की वज़ह से हैं । वैसे भी हम विचारवान मनुष्य हैं ,अपने
पूर्वजों की तरह इस दिशा में लगातार प्रयत्नशील हैं और मनुष्य होने के कर्तव्य का
निर्वाह कर रहे हैं । एक मनुष्य के रूप
में हर व्यक्ति एक चेतना संपन्न व्यक्ति है और एक सुदृढ़ मस्तिष्क का मालिक है ।
शरद कोकास
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