मिर्ज़ा
असदुल्ला खां 'ग़ालिब' अपने समय के
महत्वपूर्ण शायर रहे हैं । ‘ इश्क़ वो आतिश
है ग़ालिब ‘ इश्क़ ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया ‘ ग़ालिब छुटी शराब ‘ जैसी उनकी
पंक्तियाँ मुहावरों और कहावतों की तरह उपयोग में लाई जाती हैं । ग़ालिब साहब का एक मशहूर शेर है “ न था कुछ तो ख़ुदा
था ,कुछ न होता तो ख़ुदा होता, डुबोया मुझको होने ने ,ना होता मैं तो
क्या होता । ” इस शेर में एक प्रश्न छुपा हुआ है । यह स्पष्ट है कि हमारा अस्तित्व ही हमारे जीवन के समस्त
क्रियाकलापों के लिए उत्तरदायी है । हम हैं
इसलिए हमारे लिए यह दुनिया है, इस दुनिया
के सारे प्रपंच हैं, सुख - दुख हैं, रिश्ते- नाते हैं, दोस्त-यार हैं, घर - परिवार
है, समाज है,बाज़ार है ,फेसबुक है,व्हाट्स एप है यानि सब कुछ हैं । संसार में
उपस्थित सब कुछ उन्हीं के लिए है जो इस
धरती पर जन्म ले चुके हैं। जो लोग इस दुनिया से विदा ले चुके हैं उनके लिए भी यह
दुनिया उसी समय तक थी जब तक उनका अस्तित्व था। हमारे लिए केवल उनसे जुड़ी हुई चीजें, उनके द्वारा किए गए
कार्य और उनकी स्मृतियाँ हैं, और वे भी हमारे
लिए तभी तक हैं जब तक हम इस दुनिया में हैं
।
वस्तुत: गालिब ने यह
शेर लाक्षणिक अर्थ में उस मनुष्य जाति के बारे में कहा है जिसने इस धरती पर लाखों
वर्ष पूर्व जन्म लिया है । एक धार्मिक और
ईश्वर में विश्वास करने वाला व्यक्ति मुसीबत आने पर न तो स्थितियों को स्वीकार करता है न ही उनका तार्किक
समाधान खोजता है अपितु मुसीबतों से घबराकर वह सीधे ईश्वर से प्रश्न करता है “ हे भगवान ! तूने मुझे पैदा ही क्यों
किया ? “ या कष्टों से घबराकर वह
कहता है ,'ईश्वर मुझे उठा ले' । जन्म और
मरण की अवधारणाओं से परिचित होने के पश्चात यह मनुष्य केवल जन्म के बारे में ही
नहीं अपितु मृत्यु के बारे में भी निरंतर विचार करता रहा है । सुख की स्थितियों
में यह जीवन उसे इतना प्रिय लगता है कि वह सामान्यत: मृत्यु के विषय में विचार
नहीं करता। किसी ईश्वरीय सत्ता में विश्वास न करने वाले लोग भी दैनन्दिन व्यवहार
में इस तरह के साधारण वाक्यों का प्रयोग करते हैं और जीवन - मरण जैसे शाश्वत प्रश्नों का समाधान अन्य
क्रियाकलापों में ढूँढते हैं ।
आपका
शरद कोकास
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