शुक्रवार, 26 मार्च 2010

पृथ्वी पर रहने का किराया दो

इस बार कुछ देर हो गई । नवरात्रि पर अपने ब्लोग शरद कोकास पर विदेशी कवयित्रियों की कविता लगाने में व्यस्त रहा । इसके लिये क्षमा चाहता हूँ ।  खैर ..देर से ही सही प्रस्तुत है " मस्तिष्क की सत्ता " लेखमाला में इस बार  की यह कड़ी हमारी पृथ्वी पर ।                                                                                                          
पिछली पोस्ट से इतना ज़रूर याद रखेंमान लीजिये हमारी पृथ्वी की आबादी लगभग छह सौ करोड़  है ,इस तरह   हम हमारी पृथ्वी के 600 करोड़वें हिस्से हैं । हमारा सौर परिवार हमारी आकाशगंगा का 64 करोड़वाँ हिस्सा है तथा हमारी पृथ्वी हमारी आकाशगंगा का 25 हज़ार करोड़वाँ हिस्सा है । अब बताइये इस आकाशगंगा में हम कहाँ हुए ? फिर ऐसी करोड़ों आकाशगंगाएं बृह्मांड में हैं तो हम बृह्मांड में कहाँ हुए ? गणना छोड़िये , यह सोचिये कि जब हम बृह्मांड में इतने नगण्य हैं तो मामूली कुत्ते,बिल्ली,चीटीं और मच्छरकी क्या स्थिति होगी ? उनसे भी छोटे हैं कीटाणु जो आकार में मिलीमीटर के हज़ारवें भाग तक होते हैं जो केवल माईक्रोस्कोप से देखे जा सकते हैं और जिन्हे माईक्रोमीटर में नापते हैं। इनसे भी छोटे होते हैं अणु । अणु के विभिन्न हिस्से हैं परमाणु जो पदार्थ का सूक्ष्मतम भाग है। समस्त बृह्मांड इन्ही अणुओं से बना है। परमाणु को इलेक्ट्रोन ,प्रोटान व न्यूट्रान में विभाजित कर सकते हैं । ये मूलभूत कण हैं , इलेक्ट्रोन इनमें सबसे छोटा कण है ।
             पृथ्वी पर रहने का किराया दो                       

मकान खरीदने से पहले हम हमेशा जानना चाहते हैं यह  किसने बनाया है या ज़मीन खरीदने से पहले यह कि वह ज़मीन किसकी है । हम इस बात के प्रति आश्वस्त हो जाना चाहते हैं कि हम कहीं ठगे तो नहीं जा रहे । सही बात है , आखिर ज़मीन या मकान का पैसा दे रहे हैं भाई  । ज़मीन या मकान ही नहीं छोटी से छोटी वस्तु भी हम यदि खरीदते हैं या किराये पर लेते हैं तो उसकी बारे में जानना चाहते हैं ।ऐसा है तो फिर हम यह क्यों नहीं जानना चाहते कि जिस पृथ्वी पर अपने पुरखों के ज़माने से हम रह रहे हैं वह कहाँ से आई ? आप कहेंगे पृथ्वी हम खरीद थोड़े ही रहे हैं या इस पर रहने का किराया  थोड़े ही दे रहे हैं । सही है ,जो चीज़ मुफ्त में मिल रही हो या जिसके लिये किराया ना देना पड़ रहा हो उसके बारे में क्या पूछना । कहीं से भी आई हो पृथ्वी हमने तो इसे माल-ए-मुफ्त समझकर इसके टुकड़े टुकड़े कर बाँट लिया है । जो दिमाग से जितना चालाक उसका हिस्सा उतना बड़ा । जो बड़ा ज़मीन्दार उसके पास सैकड़ों एकड़ ज़मीन और जो सीधा-सादा गरीब उसके पास कुछ नहीं ।
चलिये सामाजिक विषमताओं की बात छोड़िये पृथ्वी कहाँ से आई यह देखते हैं । हर धर्म में पृथ्वी की उत्पत्ति सम्बन्धी ढेरों पौराणिक और प्राचीन मान्यताएँ हैं लेकिन फिलहाल इन्हे एक ओर रखकर इसका वैज्ञानिक उत्तर ढूंढते हैं । भौतिक विज्ञान के महत्वपूर्ण नियम गुरुत्वाकर्षण (जय हो बाबा न्यूटन) के नियमानुसार द्रव्य के दो पिंडों के बीच आकर्षण होता है । एक पिंड दूसरे पिन्ड को अपनी ओर खींचता है तथा उसके करीब पहुंचते पहुंचते यह आकर्षण बढ़ता जाता है व खिंचने की गति भी बढ़ जाती है । इस प्रकार जब दो पिंड एक दूसरे के बहुत निकट आ जाते हैं तो गुरुत्वाकर्षण के फलस्वरूप दोनों पिंडों से एक लम्बा तंतु निकलता है ।(ऐसा कीजिये आज रसोई में आटा गून्धिये । अपने दोनो हाथ मे अलग अलग आटे के गोले लीजिये फिर दोनो को मिलाइये और खींचकर देखिये तंतु ऐसे ही निकला होगा ) कालांतर में यह तंतु ठंडा होता है द्रव्य का शीतलीकरण होता है व छोटे छोटे पिंड बन जाते हैं इस प्रकार उत्पन्न पिंड अपने उत्पादक पिंड के चारों ओर चक्कर लगाते हैं । यह सिद्धांत सन 1916 में प्रसिद्ध ब्रिटिश वैज्ञानिक जेम्स जिंस ने स्थापित किया ।
          आइये ,इस सिद्धांत के आधार पर देखें कि हमारी पृथ्वी कैसे बनी । साढ़े चार अरब वर्ष पूर्व सूर्य के निकट से एक पिन्ड गुजरा ,दोनों पिन्डों में आकर्षण हुआ । सूर्य से जो तंतु निकला कालांतर में उसके ठंडे  होने  पर तथा द्रव्य के शीतली करण के कारण उसके छोटे छोटे पिंड बने । ये तमाम पिंड उस सूर्य की परिक्रमा करने लगे जो उनका जनक था । यह सभी पिंड ग्रह कहलाये  जिनमें हमारी पृथ्वी भी एक ग्रह है और उसके भाई बहन हैं अन्य ग्रह । हमारे सबसे करीब यही ग्रह है जिस पर हम खड़े हैं लेकिन इसका हमारी कुंडली में कहीं कोई स्थान नहीं है । और वह पिन्ड जिसके आकर्षण के फलस्वरूप हमारे सौरमंडल की उत्पत्ति हुई हो सकता है अपनी संतानों के साथ बृह्मांड में कहीं विचरण कर रहा हो ।
          इस प्रकार यह पृथ्वी जन्म लेने के पश्चात प्रारम्भ में विभिन्न प्रकार की गैस से मिलकर बना एक विशालकाय पिंड थी जो अपने अक्ष पर घूमती हुई सूर्य की परिक्रमा कर रही थी । ताप के विकीरण के फलस्वरूप यह पिंड ठंडा हुआ ,द्रव्य व गैसों का शीतलीकरण हुआ तथा तरलीय व अर्धसान्द्रीय अवस्थाओं से होता हुआ वर्तमान अवस्था तक पहुंचा। बाहरी तल से घनीकरण प्रारम्भ हुआ,उपरी सतह पर  पपड़ी जमी जो भीतर की ओर मोटी होती गई।  गर्भ भाग में आकुंचन हुआ, पपड़ी में झुर्रियाँ व दरारें पड़ीं फलस्वरूप हिमालय जैसे पर्वत और नदियाँ बनीं । यह सब घटित होने में कई करोड़ साल लगे । 
                   दिमाग पर ज़्यादा ज़ोर मत लगाइये चलिए अपने घर में ठंडे होते हुए दूध पर मलाई जमते हुए देखिए और इस पर विचार कीजिए । और किराये की बात भी भूल जाईये यह तो एक बहुत बड़ा बाड़ा है जो जितना पुराना किरायेदार उसका उतना हक़ । वही किरायेदार वही मकान मालिक, जैसे अफ्रिका जैसे बड़े देश और हमारे जैसे छोटे ,फिर देश में  भी बड़े बड़े धन्ना सेठ और हमारे जैसे फूटपाथिये । इस धरती पर रहने की कीमत न वो देते है न हम । कीमत तो छोड़िये पृथ्वी पर रहकर हम पृथ्वी का ही नुकसान करते हैं,प्रदूषण फैलाते हैं ,जंगल काटते हैं, ज़मीन से पानी चूस लेते हैं और भी बहुत सा नुकसान करते हैं इस पृथ्वी का । मुम्बई की चालें देखी हैं ना जब तक धराशायी नहीं होती लोग खाली ही नहीं करते ,फिर कई लोग दब कर मर भी जाते हैं  । हम भी धीरे धीरे अपनी पृथ्वी को वहीं ले जा रहे हैं जहाँ न ये पृथ्वी रहेगी न हम ।आप कहेंगे  हमे क्या ? हमारी आनेवाली पीढ़ीयाँ जानें । हम तो चैन से रह ही लेंगे अपने जीते जी ।                                                                                  

  उपसर्ग में इस बार प्रस्तुत है शरद कोकास की लम्बी कविता " पुरातत्ववेत्ता " से यह नौ पंक्तियाँ         


दुख के दिनो सी कठोर है बीते समय की पीठ 
जिस पर खुदे हैं सहनशीलता के दस्तावेज़ 
जिसमें उन्माद है राह बदलती नदियों का 
बेचैनी में करवट बदलती धरती का अभिशाप 
सत्तालोलुपों के आक्रमण सिंहासन की अभिलाषा में 
मवेशियों के रेवड़ हासिल करने  के लिये
घास के मैदान पर पशुपालकों की जीत 
और इन्ही के बीच कहीं अस्पष्ट सी लिखावट में 
अपने अस्तित्व का अर्थ ढूँढते मनुष्य का संघर्ष ....                                                                                         
                                                                                                                                                         
पृथ्वी पर मनुष्य के इतिहास  का बयान करती यह पंक्तियाँ आपको कैसी लगीं ज़रूर बताइयेगा - शरद कोकास         

सोमवार, 15 मार्च 2010

कौन थे जो मर गये पिछली सर्दियों में

पिछली पोस्ट से इतना ज़रूर याद रखें - सूर्य से निकला हुआ प्रकाश 8 मिनट में हम तक पहुंचता है । यह ऐसे होता है कि प्रकाश एक सेकंड में 3 लाख कि.मी. दूरी तय करता है, एक मिनट में (300000x60)कि.मी.,एक घंटे में (300000x60x60)कि.मी.,एक दिन में (300000x60x60x24)कि.मी.,तथा एक वर्ष में (300000x60x60x24x365) कि.मी. अर्थात 10लाख करोड़ कि.मी. यह दूरी एक प्रकाशवर्ष कहलाती है । इस तरह सूर्य हमसे 8 प्रकाश मिनट अर्थात(300000x60x8)=14.4 या लगभग 15 करोड़ कि.मी. दूर हुआ । और अब आगे...मस्तिष्क की सत्ता - सात 

                                  बृह्मांड में हमारी औकात क्या है

          रोजमर्रा की ज़िंदगी में हमारे धैर्य की रोज़ परीक्षा होती है । जब हमे पता चलता है कि किसी ने हमारी किसी बात को लेकर विपरीत टिप्पणी की है तो हम अपना आपा खो बैठते  हैं और गुस्से में कहते हैं “ आखिर उसकी औकात ही क्या है बड़ा आया हमे ज्ञान देने वाला “ ( मुझे पता है कुछ लोग मेरे बारे में भी यही सोच रहे होंगे ) लेकिन सच्चाई यह है कि इस दुनिया में हम अपनी ही औकात नहीं जानते ।जानते भी हैं तो सिर्फ अपने घर में या ज़्यादा से ज़्यादा पड़ोस में ।यह कहावत यूँही नहीं बनी है कि “अपनी गली में कुत्ता भी शेर होता है । “
खैर हम कुत्ते हों या शेर रहेंगे तो जानवर के जानवर ही ना । बेहतर है हम मनुष्य की तरह इस बारे में सोचें कि इस ब्रह्मांड में हमारी क्या औकात हो सकती है । आप कहेंगे ,यह तो हमने कभी सोचा ही नहीं । चलिये पहले देखें कि यह बृह्मांड क्या बला है । यह तो आप जानते ही हैं कि हमारी पृथ्वी,अन्य ग्रहों व सूर्य को मिलाकर एक सौरमंडल बनता है । ऐसे अनेक सौरमंडलों से बनती है आकाशगंगा और ऐसी अनेक आकाशगंगाओं से मिलकर बनता है बृह्मांड । इतने विशाल बृह्मांड के बारे में जानने के लिये एक जीवन बहुत छोटा है । लेकिन हमें यह एक जीवन ही मिला है और अगला जन्म होना नहीं है ,इसलिये थोड़ा बहुत तो हमें इसी जीवन में इस बारे में जानना ही चाहिये ।
यह तय करने के लिये कि इस बृह्मांड में हम कहाँ हैं चलिये एक छोटा सा गणित और हल करते हैं ।( फिर एक गणित ?? ) मान लीजिये हमारी पृथ्वी की आबादी लगभग छह सौ करोड़  है ,इस तरह   हम हमारी पृथ्वी के 600 करोड़वें हिस्से हैं । हमारा सौर परिवार हमारी आकाशगंगा का 64 करोड़वाँ हिस्सा है तथा हमारी पृथ्वी हमारी आकाशगंगा का 25 हज़ार करोड़वाँ हिस्सा है । अब बताइये इस आकाशगंगा में हम कहाँ हुए ? फिर ऐसी करोड़ों आकाशगंगाएं बृह्मांड में हैं तो हम बृह्मांड में कहाँ हुए ? गणना छोड़िये , यह सोचिये कि जब हम बृह्मांड में इतने नगण्य हैं तो मामूली कुत्ते,बिल्ली,चीटीं और मच्छरकी क्या स्थिति होगी ? उनसे भी छोटे हैं कीटाणु जो आकार में मिलीमीटर के हज़ारवें भाग तक होते हैं जो केवल माईक्रोस्कोप से देखे जा सकते हैं और जिन्हे माईक्रोमीटर में नापते हैं। इनसे भी छोटे होते हैं अणु । अणु के विभिन्न हिस्से हैं परमाणु जो पदार्थ का सूक्ष्मतम भाग है। समस्त बृह्मांड इन्ही अणुओं से बना है। परमाणु को इलेक्ट्रोन ,प्रोटान व न्यूट्रान में विभाजित कर सकते हैं । ये मूलभूत कण हैं , इलेक्ट्रोन इनमें सबसे छोटा कण है । यह वैज्ञानिक जानकारी है जिसे आपने किताबों में भी पढ़ा होगा ।
ज़्यादा विस्तार में न जायें ,मूल प्रश्न यह है कि बृह्मांड में जब हमारी स्थिति इतनी नगण्य है तब अपनी स्थिति जानने के पश्चात भी हमारे में मन में अहंकार क्यों आता है ? अपनी क्षुद्रता को जानकर भी हम जाति ,धर्म ,नस्ल ,भाषा, क्षेत्र ,राज्य ,सम्पन्नता के नाम पर क्यों लड़ते हैं ? एक दूसरे के खून के प्यासे क्यों रहते हैं ? क्या यह हमारा अहंकार नहीं है जो हमे नई जानकारी प्राप्त करने,नई बातें सीखने से रोकता है , हम अपने आप को सर्वज्ञ समझने लगते हैं , हम सिर्फ अपनी कहना चाहते हैं और किसीकी कुछ नहीं सुनना चाहते । हम अपने विचार को ही अंतिम मानते हैं । हम अपना लिखा पत्थर की लकीर समझते हैं । हम अपने आगे हर किसी को तुच्छ समझते हैं । सोचकर देखिये यदि हमारे पूर्वज भी ऐसे ही अहंकारी होते तो क्या आज विज्ञान इतनी प्रगति कर पाता ? अगर हम यह मान लेते  कि हमें सब कुछ आता है और हम सबसे बड़े ज्ञानी हैं तो आज भी उसी तरह पेड़ की छाल लपेटे घूमते रहते और जानवरों का शिकार करते रहते । न विज्ञान की कोई बात अंतिम है न धर्म की ,इसलिये सबसे पहले अपने मन से इस अहंकार को निकाल फेंकिये कि आपस में  लड़- झगड़कर हम कुछ बड़ा काम कर जायेंगे । लड़ना ही है तो आततायियों से लड़िये ..भूख ग़रीबी बेरोजगारी और मनुष्य द्वारा पैदा की गई समस्याओं से लड़िये ।
खैर ..जबसे पृथ्वी पर मनुष्य का जन्म हुआ है ,यह सब चल ही रहा है ..जाने कितने लोग इस पृथ्वी पर आये और चले गये किसको याद है ,वे कौन थे ? हम से ही कोई पूछे कि हमारे पिता के पिता के पिता के पिता कौन थे , क्या हमे याद है उनका नाम ? हमें भी कौन याद रखेगा ?और कितने साल याद रखेगा ? बृह्माण्ड की कथा यहीं समाप्त की जाये ..अगली बार बातें करेंगें इस पृथ्वी की ।
एक निवेदन - मेरा यह लिखने का उद्देश्य भी किसी की ओर इंगित करना नहीं है । मैं एक तुच्छ् प्राणि किसी को क्या कह सकता हूँ । इसलिये कृपया विषय से सम्बन्धित टिप्पणी ही करें जिसमे किसी व्यक्ति विशेष की ओर संकेत न हो


और अब उपसर्ग में कवि संजय चतुर्वेदी की यह छोटी लेकिन गम्भीर कविता उनके कविता संग्रह "प्रकाशवर्ष " (आधार प्रकाशन पंचकूला से वर्ष 1993 में प्रकाशित ) से साभार -डॉ.संजय चतुर्वेदी किंग जॉर्जेज़ मेडिकल कॉलेज (अब छत्रपति शाहू जी मे.कॉ.)लखनऊ से एम.डी. हैं ।
             जो मर गये पिछली सर्दियों में
लोग भूल जाते हैं 
कौन लोग थे 
जो उन्हे इतिहास से निकालकर लाये 
उन्हे खींचते रहे 
उनकी गर्म रज़ाइयों से बाहर 
लकड़ियाँ इकठ्ठा करते रहे 
कहीं मौसम ज़्यादा खराब न हो जाये 
उनके सहमे हुए घरों में आवाज़ बनकर रहे 

लोग भूल जाते हैं वसंत आते ही 
कौन थे जो मर गये पिछली सर्दियों में ।

सस्नेह आपका - शरद कोकास  
( चित्र गूगल से साभार )                                                                                                                            
 

सोमवार, 8 मार्च 2010

जिनका दिल टूट जाये उन्हे जनरल नॉलेज की क्या ज़रूरत

पिछली पोस्ट से और कुछ याद रखें न रखें इसे ज़रूर याद रखें - 

वैज्ञानिकों का मानना है कि बृह्मांड की उत्पत्ति से पूर्व यहाँ हाईड्रोजन हीलियम प्लाज़्मा उपस्थित था । प्लाज़्मा अर्थात ठोस,द्रव्य,वायु के अतिरिक्त पदार्थ की चौथी अवस्था या इलेक्ट्रोन रहित न्यूक्लियस की स्थिति । इस प्लाज़्मा के केन्द्र भाग में आकुंचन होना शुरू हुआ, सारे प्लाज़्मा को एक स्थान पर केन्द्रित होने के प्रयास में गुरुत्वाकर्षण में वृद्धि  हुई, तापमान में वृद्धि  हुई फिर एक महाविस्फोट हुआ और फलस्वरूप इस बृह्मांड का निर्माण हुआ । तत्पश्चात आकाशगंगायें बनीं, आकाशगंगाओं में बने सौरमंडल या नक्षत्रमंडल । इन्ही में से एक है हमारा सौरमंडल जिसमें हमारी पृथ्वी ,बुध, बृहस्पति, शुक्र, मंगल, शनि, यूरेनस ,नेप्च्यून,प्लूटो जैसे गृह हैं तथा इनका मुखिया है सूर्य । 
     और अब पढ़िये इस से आगे - मस्तिष्क की सत्ता - छह 

                 हमारा एच.ओ.डी.सूर्य हमसे कितनी दूर है       

        एक पुराना चुटकुला है । पोस्टमैन के इंटरव्यू में एक प्रतिभागी से पूछा गया “ पृथ्वी से सूर्य की दूरी कितनी है बताईये ?” प्रतिभागी ने जवाब दिया “ देखिये अगर सूरज तक डाक बाँटने का काम है तो मुझे नहीं करनी ऐसी नौकरी ।“ लेकिन आप चिंता न करें यहाँ यह प्रश्न मै केवल आपका सामान्य ज्ञान बढ़ाने के लिये कर रहा हूँ । आप जानते  होंगे हमारे युवा वर्ग में आजकल एक डॉयलॉग बहुत चलता है ‘ और कुछ हो न हो जी.के. सॉलिड होना चाहिये ।‘ हमारे एक युवा मित्र हैं एक दिन कहने लगे “ जिनका दिल टूट जाये उन्हे जनरल नॉलेज की क्या ज़रूरत ? ” मैनें पूछा “ऐसा क्यों “ तो उन्होने कहा “ आपने वो गाना नहीं सुना ..जब दिल ही टूट गया हम जी के क्या करेंगे “ चलिये हम मान लेते हैं कि हमारा दिल अभी नहीं टूटा है  या हमारा दिल सॉलिड है  इसलिये थोड़ा बहुत जी.के.तो जान ही लेते है ।  
हमारे सौरमंडल के विभागाध्यक्ष सूरज के बारे में बात करते हैं जिसे हम रोज सुबह ऊगता हुआ देखते हैं , जिसे हम प्रणाम करते हैं ,जिसे हम अर्ध्य देते हैं ।जिसके लिये वेदों में अनेक ऋचायें रची गईं और दुनिया के तमाम धर्मग्रंथों में जिसकी स्तुति में साहित्य रचा गया । सूर्य भी वस्तुत: एक तारा है जो पृथ्वी के निकटतम है । इसका जन्म पांच हज़ार करोड़ वर्ष पूर्व हुआ । यह गैसों का एक गोला है तथा इसमें उपस्थित हाईड्रोजन गैस से होने वाली नाभीकीय संलयन की क्रिया के फलस्वरूप इससे उर्जा निकलती है । यह सभी दिशाओं में प्रकाशमान होता है । हमें इसकी उर्जा का 0. 000000005 % भाग ही मिल पाता है । सूर्य की सतह का तापमान 6000  सें.ग्रे. है । इसके केन्द्र का तापमान 1.5 करोड़ डिग्री सें.ग्रे. है ।यह पृथ्वी से पन्द्रह करोड़ किलो मीटर दूरी पर स्थित है तथा पृथ्वी से तेरह लाख गुना बड़ा है । सूर्य से निकला हुआ प्रकाश 8 मिनट में हम तक पहुंचता है । यह ऐसे होता है कि प्रकाश एक सेकंड में 3 लाख कि.मी. दूरी तय करता है, एक मिनट में (300000x60)कि.मी.,एक घंटे में (300000x60x60)कि.मी.,एक दिन में (300000x60x60x24)कि.मी.,तथा एक वर्ष में (300000x60x60x24x365) कि.मी. अर्थात 10लाख करोड़ कि.मी. यह दूरी एक प्रकाशवर्ष कहलाती है । इस तरह सूर्य हमसे 8 प्रकाश मिनट अर्थात(300000x60x8)=14.4 या लगभग 15 करोड़ कि.मी. दूर हुआ ।
बाप रे, दिमाग घूम गया । वैसे भी किलोमीटर की गणना समय में करना कठिन होता है । अभी मैं मुम्बई गया था । वहाँ दूरी को समय में बताने की परम्परा है । प्रभादेवी नाके पर मैने पूछा “ सिद्धि विनायक मन्दिर कितनी दूर है ? “ जवाब मिला “ बस पाँच मिनट “ जुहू बीच की दूरी पूछी तो उत्तर मिला “ बस फिफ्टी फाइव मिनट्स “ मैने किलोमीटर मे दूरी पूछी तो वे सज्जन मुझे ऐसे घूरकर देखने लगे जैसे मैं किसी दूसरे ग्रह से आया प्राणि हूँ  । अब यह पैदल फिफ्टीफाइव मिनट था ,बस से या रेल से वह भी मुझे ही तय करना था । प्रकाश की गति से तो मैं चलने से रहा । मैं समझ गया ,मुम्बई में या तो सब विज्ञान की भाषा में बात करते हैं या सबके सब सूर्यवंशी हैं । 
चलिये आप भी जब तक यह सवाल हल करिये । वैसे देखा जाये तो यह बहुत कठिन गणित नहीं है । यह आप चाहे तो कागज कलम या केल्कुलेटर ले लें और धीरे धीरे इसे हल करें । अगर मुझसे कहीं ग़लती हो गई हो तो मुझे बतायें वैसे भी छात्र जीवन में गणित में अपना हाल बेहाल रहा है । तो हल कर रहे हैं ना ?  भाई इतना गणित तो आपने स्कूल में पढ़ा ही होगा ?

उपसर्ग में प्रस्तुत है बाबा नागार्जुन की यह कविता 1961 में लिखी हुई 

मेरी भी आभा है इसमें

नये गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है 
यह विशाल भूखण्ड आज जो दमक रहा है 
मेरी भी आभा है इसमें 
भीनी भीनी खूशबु वाले 
रंग-बिरंगे  यह जो इतने फूल खिले हैं
कल इनको मेरे प्राणों ने नहलाया था 
कल इनको मेरे सपनो ने सहलाया था 
पकी सुनहली फसलों से जो 
अबकी यह खलिहान भर गया 
मेरी रग-रग के शोणित की बूँदे इसमें मुसकाती हैं 
नये गगन में नया सूर्य जो चमक रहा है  
यह विशाल भूखण्ड आज जो दमक रहा है 

मेरी भी आभा है इसमें

बुधवार, 3 मार्च 2010

दुनिया का डी.एन.ए.टेस्ट ज़रूरी है


  होली की मस्ती अब कम होने को है लेकिन बच्चों की मस्ती अभी कम नहीं हुई है ..हम सभी को अपने बचपन की होली याद आ रही है । चलिये " मस्तिष्क की सत्ता  "लेखमाला के इस लेख क्रमांक -5 की शुरुआत यहीं से करें ..                      
                   आपको आपके बचपन की कबसे याद है ?
जो कुछ हमारी आंखों के सामने घटित हो रहा है उसे देखने के लिये हमारी आँखें पर्याप्त हैं लेकिन उसे महसूस करने के लिये  अपने मस्तिष्क की क्षमता से हमारा परिचय होना आवश्यक है ।चलिये अतीत के बारे में सोचना शुरू करते हैं । अरे.. मै आपको दुनिया का इतिहास पढ़ने के लिये नहीं कह रहा हूँ ,मै तो आपसे अपने बचपन के बारे में सोचने के लिये कह रहा हूँ । आप कहेंगे हमे तो अपने बचपन की सारी बातें याद हैं । सच सच बताइये सारी बातें याद हैं ? जब आपने पहला शब्द बोला था , याद है ? जब आप ने पहला कदम रखा था और ज़मीन पर खड़े हुए थे वह क्षण याद है ? और जब आपने अपने पापा की गोद में....की थी वह याद है ? लेकिन हमें यह सब याद न होते हुए भी मालूम तो है ही इसलिये कि हमे हमारे माता-पिता ने यह बताया है । इसीलिये याद भले न हो हम सब कहते ज़रूर  हैं....” हमने भी अपनी माँ का दूध पिया है । “ और सबसे बड़ी बात तो यह कि हमे जो बताया गया , हमने उसपर विश्वास किया है ।और दूसरे बच्चों को देखकर और उस समय की तस्वीरें देखकर उसकी कल्पना भी की है ।यह मस्तिष्क का ही कमाल है कि जिस तरह हम अपने बचपन के अनदेखे दृश्यों की कल्पना कर लेते हैं उसी तरह आनेवाले कल के दृश्यों की भी कल्पना कर लेते हैं । 
    इस तरह दुनिया के भी न केवल वर्तमान बल्कि भविष्य और अतीत की कल्पना भी हम इसी मस्तिष्क के द्वारा ही कर सकते हैं । अब आइये उन दृश्यों की कल्पना करते हैं जिन्हे न हमारे माता-पिता  ने देखा ,न उनके माता –पिता ने । कल्पना कीजिये आज से अरबों वर्ष पूर्व जब इस धरती पर इंसान नहीं था । और इंसान तो क्या जब यह पृथ्वी ही नहीं थी , न सूर्य था, ना चान्द-सितारे थे , ना आकाशगंगायें थीं , ना यह बृह्मांड था , तब क्या था ? अर्थात जब “ कुछ नहीं ” था तो “ कुछ नहीं ” से पहले क्या था ?  कुछ लोग इसका उत्तर इस तरह देते हैं कि ‘ कुछ नहीं ‘ से पहले भी ‘ कुछ नहीं ‘ था  और उससे पहले भी ‘ कुछ नहीं ‘ था । उनसे पूछा जा सकता है कि जब ‘ कुछ नहीं ‘ था तो ‘ कुछ नहीं ‘ से यह सब कुछ कैसे आया ?
चलिये गालिब साहब की बात से ही शुरुआत करते है । मैने शुरुआत में ग़ालिब साहब का एक शेर पढ़ा था , डुबोया मुझको होने ने न होता मैं तो क्या होता । इसी शेर का पहला मिसरा है “ न था कुछ तो खुदा था , कुछ न होता तो खुदा होता । “ जब से मनुष्य ने ईश्वर की कल्पना की ( यहाँ अटकिये मत ..इस पर हम आगे चलकर बात करेंगे ) तब से लेकर अब तक तो यही माना गया है कि जब कुछ नहीं था तो यह बृह्मांड मौजूद था लेकिन  वैज्ञानिकों का मानना है कि बृह्मांड की उत्पत्ति से पूर्व यहाँ हाईड्रोजन हीलियम प्लाज़्मा उपस्थित था । प्लाज़्मा अर्थात ठोस,द्रव्य,वायु के अतिरिक्त पदार्थ की चौथी अवस्था या इलेक्ट्रोन रहित न्यूक्लियस की स्थिति । इस प्लाज़्मा के केन्द्र भाग में आकुंचन होना शुरू हुआ, सारे प्लाज़्मा को एक स्थान पर केन्द्रित होने के प्रयास में गुरुत्वाकर्षण में वृद्धि  हुई, तापमान में वृद्धि  हुई फिर एक महाविस्फोट हुआ और फलस्वरूप इस बृह्मांड का निर्माण हुआ । तत्पश्चात आकाशगंगायें बनीं, आकाशगंगाओं में बने सौरमंडल या नक्षत्रमंडल । इन्ही में से एक है हमारा सौरमंडल जिसमें हमारी पृथ्वी ,बुध, बृहस्पति, शुक्र, मंगल, शनि, यूरेनस ,नेप्च्यून,प्लूटो जैसे गृह हैं तथा इनका मुखिया है सूर्य ।
आप कहेंगे इस में नया क्या है ? सही है ,यह सब बातें आप भलिभांति जानते हैं । यह भी जानते हैं कि यह दुनिया एक दिन में नहीं बनी जैसे कि हम एक दिन में बड़े नहीं हो गये ।इंसान के अतीत के बारे में तो उसके पूर्वजों ने उसे बता दिया लेकिन दुनिया के अतीत के बारे में इंसान को  कौन बताता , सो इंसान ने खुद यह जानना चाहा । (भई यह तो इंसान की फितरत है , वह अपने अतीत के बारे में जानना चाहता है , अपने पड़ोसी के अतीत के बारे में जानना चाहता है , फिर दुनिया के अतीत के बारे में क्यों नहीं जानना चाहेगा ? ) फलस्वरूप वैज्ञानिकों ने बहुत खोज की , विभिन्न परीक्षण किये और इस दुनिया का अतीत हमारे सामने रख दिया । आप कहेंगे कि इस वैज्ञानिक परीक्षण की क्या आवश्यकता थी । क्या हमारे पूर्वजों का ज्ञान काफी नहीं था ? मेरा आपसे सवाल है कि जब माँ बच्चे से कहती है कि यह तुम्हारे पिता है और वह बिना किसी सन्देह के उस पर विश्वास भी करता है , दुनिया भी इस बात पर विश्वास करती है फिर कानून को प्रमाण  के लिये डी.एन.ए.टेस्ट की ज़रूरत क्यों पड़ती है ?   
किसी भी दिशा में विज्ञान अभी ठहरा नहीं है । इस दुनिया के बारे में परीक्षण लगातार चल रहे हैं ,अभी पिछले दिनों ऐसे ही एक परीक्षण के दृश्य आपने देखे होंगे और दुनिया के खत्म हो जाने के भय से भयभीत भी हुए होंगे । इसीलिये  हर वैज्ञानिक और अवैज्ञानिक  जानकारी का तार्किक ढंग से विश्लेषण करने की ज़रूरत है अन्यथा हम इस दुनिया की उत्पत्ति के बारे में नहीं जान पायेंगे और हमेशा इसे किसी की ‘दी हुई दुनिया’ समझते रहेंगे या किसी प्रभुत्वशाली देश को इस दुनिया का मालिक समझते रहेंगे तथा इस दुनिया में रहने का वास्तविक आनन्द कभी नहीं उठा पायेंगे ।- शरद कोकास 

उपसर्ग में कवि केदार नाथ सिंह की यह चर्चित कविता 

उसका हाथ 
अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा 
दुनिया को 
हाथ की तरह गर्म और सुन्दर होना चाहिये । 
छवि गूगल से साभार