सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

क्या हम सभी दोगले हैं ?


                                 
दीपावली के समय की बात है । ( आप कहेंगे यह होली के समय मैं दीवाली की बात क्यों कर रहा हूँ ?, चलिये छोड़िये .. किस्सा सुनिये ) मैं घर से दूर किसी अन्य शहर में अपने मित्र के यहाँ था । पूजन के पश्चात मैने अपने मित्र से कहा चलो शहर की रोशनी देखकर आते हैं ।हम लोग जब निकलने लगे तो मैने उनसे कहा " दरवाज़ा तो बन्द कर दो । " उन्होने कहा " आज के दिन लक्ष्मी कभी भी आ सकती है , इसलिये दरवाज़ा बन्द नही किया जाता । " मैने कहा  " और चोर आ गये तो ? " और सचमुच ऐसा ही हुआ । जब हम लोग लौटे तो चोर लक्ष्मीजी के पास रखी नकदी पर हाथ साफ कर चुके थे । मैने कहा .." देख लो ,  यह क्यों भूल गये कि जिस दरवाज़े से लक्ष्मी आ सकती है उससे जा भी तो सकती है ।"
          ऐसा और भी शहरों में और भी लोगों के साथ हुआ होगा ।लेकिन इस किस्से का तात्पर्य यह कि इस तरह ठगे जाने से बचने के लिये हमे सायास विश्वास और अन्धविश्वास के इस दुष्चक्र से निकलना बहुत ज़रूरी है । अन्यथा हम जीवन भर उन्हीं मान्यताओं और जर्जर हो चुकी परम्पराओं को ढोते रहेंगे और इसका नुकसान उठाते रहेंगे  । हाँलाकि इससे कोई विशेष नुकसान नहीं है , क्योंकि इतनी बुद्धि तो हम में है कि जैसे ही हमें नुकसान की सम्भावना दिखाई देती है हम सतर्क हो जाते हैं । लेकिन कुछ चालाक लोग, सामान्य लोगों की इस मनोवृति से हमेशा फायदा उठाते हैं और अक्सर  सीधे-सादे लोग अन्धविश्वासों का शिकार बन जाते  हैं । हम लाख सतर्कता बरतें लेकिन कहीं ना कहीं तो ठगे जाते ही हैं । अगर हम चाहते हैं कि हमारा जीवन सहज हो, सरल हो और इस प्रकार की दुर्घटनाओं से रहित हो तो इसके लिये हम वास्तविकता जानने का प्रयास करना होगा । हमें अपने आप को प्रशिक्षित करने की शुरुआत करनी होगी ।इसके लिये सबसे अधिक आवश्यकता है अपने आपको वैज्ञानिक दृष्टि  से लैस करने की , अपने आप में इतिहास बोध जागृत करने की तथा  ऐतिहासिक तथा वैज्ञानिक अध्ययन की ।
आप कहेंगे व्यस्तता के इस युग में अपनी रोजी-रोटी के लिये ज़द्दोज़हद करते हुए इतनी फुर्सत कहाँ है जो इसके लिये किताबें-विताबें पढ़ें । सही है , इसके लिये किताबें पढ़ने की ज़रूरत भी नहीं है । आप तो सिर्फ उसे याद करें जो बचपन से लेकर अब तक आपने अपनी शालेय व महाविद्यालयीन शिक्षा में पढ़ा है । बिना किताबें पढ़े भी हम अपनी सहज बुद्धि से आज जो कुछ हमारे सामने घटित हो रहा है उसका वैज्ञानिक विष्लेषण तो कर ही सकते हैं  ।तर्क के आधार पर अन्धविश्वास कहकर बहुत सारी मिथ्या बातों को  खारिज भी कर सकते हैं ।
 हम अपने दैनन्दिन जीवन में ऐसा करते भी हैं । लेकिन कई बार स्थायी रूप से इसका प्रभाव नही पड़ता । कुछ समय बाद  हम इसे भूल जाते है और दोबारा फिर उसी तरह की किसी घटना का शिकार हो जाते हैं ।शायद इसी लिये आये दिन हम अखबारों में ठगी की वही वही खबरें पढ़ते है.. “ नकली सोना देकर ठगा गया “ नकली बाबा बनकर जेवरात ले गया “ “झाड़फूँक से बच्चे की मौत “आदि आदि । हम पढ़े-लिखे लोग ऐसे लोगों की मूर्खता पर हँसते हैं और  सोचते हैं कि काश इस तरह ठगे जाने से बेहतर लोग इसके बारे में पहले से जान लेते ।
लेकिन हम पढ़े-लिखे लोग और भी उन्नत तरीके से ठगे जाते हैं और इसका हमें पता भी नहीं चलता । उदाहरण के तौर पर मेरी जानकारी में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसने सौ ग्राम की टुथपेस्ट की ट्यूब से पेस्ट निकालकर जाँचा हो कि वह सौ ग्राम है या नहीं । न हम पेट्रोल की जाँच करते है न गैस की न गंगा जल लिखी बोतल की ,कि उसमे गंगा का जल है या नहीं । हम बहुत सारे विश्वासों की जाँच करना चाहते हैं लेकिन हमें विश्वास दिला दिया जाता है ..” आल इस वेल “ । कई बार विश्वास करने के लिये धर्म और ईश्वर के नाम पर भी हमें बाध्य किया जाता है । हम ठगे जाने से कैसे बचें रहें और कोई अन्धविश्वास भी हमारा कोई नुकसान न कर सके इसके लिये सबसे ज़्यादा ज़रूरी है हमारे जीवन में और हमारे आसपास घटित होने वाली हर घटना के पीछे का कारण जानना । इसके लिये हमारे पास पर्याप्त वैज्ञानिक व  ऐतिहासिक ज्ञान व चेतना का होना भी आवश्यक है ।
इस ज्ञान के अंतर्गत  कुछ प्रश्नों के उत्तर जानना अत्यंत  आवश्यक है जैसे कि यह दुनिया कैसे बनी ? बृह्मांड का निर्माण कैसे हुआ ? सूर्य चांद सितारे कहाँ से आये ? पृथ्वी पर जीवन कैसे आया ?,मनुष्य का जन्म कैसे हुआ ? मनुष्य के विकास में उसके मस्तिष्क की क्या भूमिका रही ?,मस्तिष्क कैसे काम करता है ? हम इतर प्राणियों से अलग क्यों हैं ? हम मस्तिष्क में भूत-प्रेत सम्बन्धी सूचनाओं को कैसे दर्ज करते हैं ? हमे भय क्यों लगता है ? भय से मुक्ति कैसे सम्भव है ? हमारे व्यक्तित्व का निर्माण कैसे होता है ? ज्ञान क्या है ? विज्ञान क्या है ?  मन क्या है ? आदि आदि ।
आप कहेंगे इन बातों का विश्वास –अन्धविश्वास से क्या सम्बन्ध है ? और यह सब तो हम जानते हैं ।सही है ,निरक्षरों की बात छोड़ भी दें लेकिन पढ़ा-लिखा हर व्यक्ति स्कूल कॉलेज में ,पाठ्य पुस्तकों में इन बातों को पढ़ चुका होता है, फिर भी वह अन्धविश्वासों से क्यों घिरा होता है ? क्यों वह अपने जीवन मे कई बार धोखा खाता है ? इस बात पर भी सोचने की आवश्यकता है । इन्हे इन प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में समझने की भी आवश्यकता है । इसका मूल कारण मनुष्य के मस्तिष्क में लागू वह दोहरी प्रणाली है जिसकी  वज़ह से वह विश्वास और अन्धविश्वास के बीच झूलता रहता है और सही समय पर सही निर्णय नहीं ले पाता ।
यह कैसे घटित होता है यह जानने से पूर्व बृह्मान्ड की उत्पत्ति से लेकर मनुष्य की उत्पत्ति तक की कथा का संक्षेप में पुनर्पाठ ज़रूरी है  । तो अगली पोस्ट से प्रारम्भ करते है उस समय की बात से जब इस दुनिया में कुछ नही था । - शरद कोकास
छवि गूगल से साभार

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

क्या आप धारावाहिक और फिल्में देखते हुए रोते हैं ?


              
                          अज्ञात शक्तियों की कल्पना
मनुष्य के मस्तिष्क की विकलांगता का यह सिलसिला बहुत पुराना नहीं है लेकिन इससे सबसे अधिक नुकसान यह हुआ कि हमने विश्वास और अन्ध विश्वास मे अंतर करना छोड़ दिया । फलस्वरूप ऐसी अनेक मान्यताओं ने हमारे जीवन मे अपना स्थान मज़बूत कर लिया जिनका वास्तविकताओं से कोई सम्बन्ध नहीं है। मानव जीवन के प्रारम्भिक दौर में जब मनुष्य जन्म ,मृत्यु और प्रकृति के रहस्यों से नावाकिफ था ,बीमारियाँ और प्राकृतिक विपदायें उसे घेर लेती थीं और वह असमय ही काल के गाल में समा जाता था । कार्य और कारण का सम्बन्ध ना स्थापित कर पाने के कारण उसने अनेक अज्ञात शक्तियों की कल्पना की और अपने विवेकानुसार अपने जीवन को सुरक्षित रूप से संचालित करने के लिये अनेक मान्यतायें गढ़ लीं ।
प्राचीन मनुष्य आकाश में घटित होने वाली परिघटनाओं को एक बच्चे की तरह बहुत उत्सुकता से देखता था । वह देखता था कि सूर्य जब आकाश में होता है तो सब कुछ साफ दिखाई देता है ,उष्णता का अनुभव होता है,जंगली जानवर दूर भाग जाते हैं । वहीं रात में चांद रोज़ आकार बदलता है और एक निश्चित अवधि के बाद फिर पूरा दिखाई देता है । इस अवधि को उसने महीना माना । उसी तरह सितारों की रोज़ बदलती स्थिति और एक वर्ष पश्चात फिर उसी स्थान पर दिखाई देने की गणना के  अनुसार वर्ष की व्याख्या की गई । सभ्यताओं के विकास के क्रम में सिन्धु, बेबीलोनिअन, मिस्त्र ,मेसोपोटामिया और चीनी सभ्यतायें, नदियों के किनारे विकसित हुईं। इन लोगों ने बृह्मांड ,सूर्य ,आकाश ,चांद, तारों के बारे में अपनी कल्पनायें कीं । जैसे प्राचीन मिस्त्र के लोग आकाश को सितारों से जड़ी देह लिये एक देवी मानते हैं । यूनानियों के अनुसार आकाश एक छत है जहाँ दैत्य विशालकाय मशीनें चलाते हैं , वहीं हमारे यहाँ मान्यता है कि वासुकि नाग की गोद में विष्णु कछुए के रूप में बैठे हैं और अभी भी पुराने लोग यह मानते हैं कि वासुकि नाग के क्रोध में फन हिलाने की वज़ह से भूकम्प आते हैं ।
          बृह्मांड के रहस्य को आज भी पूरी तरह नहीं जाना जा सका है लेकिन जितना हम जानते हैं उसे जानने में भी मनुष्य को लगभग 2000 वर्षों का समय तो लगा ही है । कल्पनाओं से वास्तविकता में आने के लिये यह अवधि कम नहीं है । दूसरी सदी के यूनानी वैज्ञानिक क्लॉडियस टॉलेमी से लेकर ,आर्यभट्ट .हिस्टॉर्कस,  पन्द्रहवीं सदी के टाईकोब्राहे,  निकोलस कॉपरनिकस , गियार्डानो ब्रूनो , गेलेलिओ ,केपलर और न्यूटन जैसे वैज्ञानिकों के योगदान को इस बात के लिये कम करके नहीं आंका जा सकता।
          अफसोस यही है कि एक ओर इन वैज्ञानिक मान्यताओं पर विश्वास करते हुए भी हम सूर्यग्रहण और चन्द्रग्रहण का कारण राहु-केतु द्वारा उन्हें निगला जाना मानते हैं ? भूकम्प का कारण नाग का हिलना मानते हैं  ? करवा चौथ पर चांद की पूजा कर ,प्रताड़ित करने वाले पति  के लिये भी  लम्बी उम्र की दुआयें मांगते हैं ,( ग्लीसरीन के आँसू के सहारे बनाये जाने वाले धारावाहिकों और फिल्मों को देख कर ज़ार ज़ार रोते हैं ) , डीहायड्रेशन होने पर बच्चे की नज़र उतारते हैं ,बिल्ली के रास्ता काट देने पर या किसी के छींक देने पर ठिठक जाते हैं । हम भूत-प्रेत,पुनर्जन्म, लोक-परलोक, आत्मा,मोक्ष आदि में आँख मून्दकर विश्वास करते हैं । ऐसे ना जाने कितने अन्धविश्वास हैं जिन्हे हमने अपने मस्तिष्क में स्थान दे रखा है । इन्हे हम दूर करना भी चाहते है लेकिन तथ्यों पर विश्वास करने में भय महसूस करते हैं । हम स्वयं को आधुनिक और पढ़े-लिखे कहलाना तो पसन्द करते हैं लेकिन जो परम्पराएं चली आ रही हैं उनकी हम पड़ताल नहीं करते । आस्था हमारा मार्ग अवरुद्ध करती है और आधा सच और आधा झूठ स्वीकार करते हुए उसी तरह जीवन भर दोहरे मानदंडों के साथ जीते हुए पारलौकिक सुख और मोक्ष की कामना करते हुए अंतत: मनुष्य जीवन से मुक्त हो जाते हैं ।
छवि गूगल से साभार

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

हवा से भी बच्चा पैदा हो सकता है ?

लेखमाला " मस्तिष्क की सत्ता "की पहली किश्त में हम लोगों ने इस बात पर विचार किया कि हम अगर पैदा ही नहीं होते तो क्या होता ? लेकिन जबकि हम मनुष्य के रूप में जन्म ले चुके हैं , तो इस बात पर विचार करना ज़रूरी है कि हम मनुष्य क्यों हैं । वैज्ञानिक दृष्टि से इस बात पर विचार करने से पूर्व यह भी जान लें कि क्या हमारे पूर्वजों की वैज्ञानिक दृष्टि थी ? या यह कि वे विज्ञान किसे कहते थे ? जिस काम को सीखने में मनुष्य को हज़ारों साल लगे उसे आज एक बच्चा कैसे भलिभाँति सम्पन्न कर लेता है ? हम मनुष्य अपने आप में कुछ मौलिक हैं या वही पुराने मनुष्य के रीमिक्स संस्करण हैं ? चलिये इन प्रश्नों पर विचार करें । आप लोगों से पुन: निवेदन है कि इस लेख को गम्भीरता से पढ़ें और बातचीत में हिस्सा लें । - शरद कोकास  
                    
                                दुनिया का प्रथम वैज्ञानिक कौन था ?

लाखों वर्ष पूर्व जिस मनुष्य ने पत्थर उछाल कर  देखा था और कहा था.. ‘  अरे यह तो एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकता है ‘ वह उस युग का वैज्ञानिक था । पहली बार जिस ने अग्नि का प्रयोग किया ,पहली बार जिस ने पत्थरों से औज़ार बनाये, पहली बार जिसने छाल को वस्त्र की तरह इस्तेमाल किया,पहली बार जिसने खाने योग्य और न खाने योग्य वस्तुओं की पहचान की,पहली बार जिसने पंछियों की तरह उड़ने की कोशिश की और इस कोशिश में पहाड़ से कूद कर मर गया,या जो मछली की तरह तैरने की कोशिश में पानी में डूब गया ,ऐसे सभी मनुष्य इस मनुष्य जाति के प्रथम वैज्ञानिक थे । आज जो मनुष्य रॉकेट को अंतरिक्ष में भेज कर नये नये ग्रहों पर पहुंच रहा है और वहाँ बस्ती बसाने के स्वप्न देख रहा है वह आज का वैज्ञानिक है । इसी तरह खानपान व अन्य आदतों के बारे में भी कहा जा सकता है । वह मनुष्य जिसने पहला ज़हरीला फल खाया और मरकर दुनिया को यह बता गया कि इसके खाने से मौत हो जाती है क्या दुनिया का पहला वैज्ञानिक डायटीशियन नहीं था ?
मानव जीवन की यह सारी क्रांति पीढ़ी दर पीढ़ी उसके मस्तिष्क में दर्ज़ होती रही है । अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिये वह इसकी क्षमता का उपयोग कर नित नये आविष्कार करता रहा । आज दस-बारह साल का एक बच्चा मनुष्य द्वारा किये जाने वाले अधिकांश काम कर लेता है जिन्हे सीखने में हमारे पूर्वजों को हज़ारों साल लगे । वह निरंतर प्रयोग करता गया और पिछले अनुभव के आधार पर पुराने को छोड़ नये को अपनाता गया । लेकिन धीरे धीरे यह मनुष्य दो भागों में बँट गया कुछ लोग तो अपने पुरखों की तरह नवीनता की तलाश में जुट गये और कुछ ने पहले की उपलाब्धियों को अंतिम मान संतोष कर लिया ।
आज का मनुष्य इन्ही दोनों का घालमेल बनकर रह गया है ।अफसोस  यह है कि आज वह जहाँ नये को स्वीकार कर रहा है वहीं बगैर उनकी प्रासंगिकता परखे पुराने विश्वासों को भी साथ लिये चल रहा है । एक ओर वह टेस्ट ट्यूब बेबी के जन्म के चिकित्सकीय विज्ञान से परिचित है वहीं दूसरी ओर इस बात पर भी यकीन करता है कि स्त्री, सूर्य की रोशनी से या हवा मात्र के संसर्ग से संतान को जन्म दे सकती है । ऐसे अनेक उदाहरण आप खुद सोच सकते हैं । मानव मस्तिष्क में कार्यरत इस दोहरी प्रणाली में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं है इसलिये कि ज्ञान और विज्ञान दोनों ही उसने अपने पूर्वजों से जस का तस पाया है । जिन मनुष्यों ने विरासत में प्राप्त इस ज्ञान की विवेचना कर नये प्रयोगों के माध्यम से उसे खारिज किया है अथवा आगे बढ़ाया है  और जो  वास्तव मे मनुष्य जाति के भविष्य के लिये चिंतित एवं प्रयासरत है वे मनुष्य ही मानव जाति का सच्चा प्रतिनिधित्व करते हैं ।
लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि शेष मनुष्य, मनुष्य कहलाने के हक़दार नहीं  हैं । उन मनुष्यों का दोष इसलिये नहीं है कि सैकड़ों वर्ष पूर्व ही उनके मस्तिष्क को विचार के स्तर पर पंगु बना दिया गया है ,उनसे सोचने समझने की शक्ति छीन ली गई है तथा धर्म एवं संस्कृति के नाम पर उनके भीतर यह भ्रम प्रस्थापित कर दिया गया है कि जो कुछ प्राचीन है वही अंतिम है । इसके विपरीत विज्ञान किसी बात को अंतिम नहीं  मानता है और प्राचीन की नये सन्दर्भों में व्याख्या करता है । इसी कारण इतिहास के नये अर्थ उद्घाटित होते  हैं और पुराने अनुभव तथा नये ज्ञान की रोशनी में भविष्य का मार्ग प्रशस्त होता है । 
उपसर्ग -  उपसर्ग में प्रस्तुत है कवि संजय चतुर्वेदी की यह छोटी सी कविता उनके संग्रह "प्रकाशवर्ष " से साभार 
           सात हज़ार साल बाद 
कोई सात हज़ार साल बाद उसने खोला दरवाज़ा 
बदल गई थी भाषा 
लेकिन बदले नहीं थे  आदमियों के आपसी सम्बन्ध 
और वही आदमी था आज भी राजा 
जिसके डर से वह बन्द हुआ था .. 
सात हज़ार साल पहले । 
              - संजय चतुर्वेदी 
यह पोस्ट आपको कैसी लगी इस बात की प्रतीक्षा रहेगी । - शरद कोकास


छवि गूगल से साभार

सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

मैं भी मरना नहीं चाहता भाई...

                                                                  मस्तिष्क की सत्ता - एक 

                                                           “ ना होता मै तो क्या होता “
                  गालिब के मशहूर शेर का मिसरा है “ डुबोया मुझको होने ने ,ना होता मैं तो क्या होता । ” ज़रा इस बात पर गम्भीरता से सोचिये कि हम हैं इसलिए हमारे लिये यह दुनिया है ,हम हैं इसलिये इस दुनिया के सारे प्रपंच हैं, सुख –दुख हैं , रिश्ते- नाते हैं , दोस्त-यार हैं , घर - परिवार है , यानि सब कुछ हैं । यदि हमारा अस्तित्व ही नहीं होता मतलब हम पैदा ही नहीं होते तो हमारे लिये कुछ नहीं होता । सारा कुछ उनके लिये होता जो इस धरती पर जन्म ले चुके हैं । यह बात उन पर लागू नहीं होती जो यहाँ जन्म लेने के पश्चात यहाँ से प्रस्थान कर चुके हैं क्योंकि उनके जाने के बाद भी उनसे जुड़ी हुई चीजें और उनकी स्मृतियाँ तो होती हैं ।
                   दर असल गालिब ने यह शेर अपने बहाने उस मनुष्य जाति के बारे में लिखा है जिसने इस धरती पर लाखों वर्ष पूर्व जन्म लिया है और इस जाति का प्रतिनिधि हर एक मनुष्य है जो अब तक इस बात पर विचार कर रहा है कि आखिर उसने जन्म क्यों लिया है ? जैसे ही मुसीबत आती है हम सीधे उपर वाले से सम्वाद करते हैं “हे भगवान ! तूने मुझे पैदा ही क्यों किया ? न केवल जन्म के बारे में बल्कि यह मनुष्य मृत्यु के बारे में भी विचार कर रहा है । सुख की स्थितियों में यह जीवन उसे इतना प्रिय लगता है कि वह मरकर भी मरना नहीं चाहता । हाँलाकि हम में से बहुत से लोग तकलीफ बढ़ जाने पर यह कहते ज़रूर हैं , “ हे ऊपर वाले..मुझे उठा ले “ लेकिन सचमुच कोई उठाने आ जाये तो कहेंगे..” तुम सच में आ गये यार ..मैं तो मज़ाक कर रहा था ।“
                    यद्यपि स्वयं का जन्म और मृत्यु दोनो ही उसके बस में नहीं है लेकिन जन्म लेने के पश्चात यह जीवन और यह शरीर उसे इतना प्रिय लगने लगता है कि लाख कष्टों के बावज़ूद वह इसे जीवित रखने की भरसक कोशिश करता है । वह बार बार जन्म लेना चाहता है और उन समस्त सुखों का उपभोग करना चाहता है जो उसके पूर्वजों ने अनवरत परिश्रम और प्रयोग कर उसके लिये जुटाये हैं ।न केवल उपभोग बल्कि हम ज़्यादा से ज़्यादा सुविधायें जुटाना चाहते हैं और उसके लिये नित नये आविष्क़ार कर मनुष्य जीवन की बेहतरी के लिये कुछ करना चाहते हैं । ऐसा कौन है जो पूर्वजों द्वारा अर्जित ज्ञान में बढ़ोत्तरी कर इस दुनिया को आगे बढ़ाने में अपना योगदान नहीं देना चाहता ? इससे बढ़कर यह कि हम में से ऐसा कौन है जो सारी सुख –सुविधाओं के साथ जीते हुए अमर होने की आकान्क्षा नहीं रखता । यह सच है और इसमें कोई दो राय नहीं कि हम सभी लगातार सोच विचार करते हुए इस दिशा में प्रयत्नशील हैं और मनुष्य होने के कर्तव्य का निर्वाह कर रहे हैं ।
                            सोचने विचारने ,चिंतन करने और आविष्कार करने का यह समस्त कार्य मनुष्य नामक यह प्राणि दिमाग नामक अद्भुत अंग से करता है जो उसकी देह की उपरी मंज़िल पर स्थित खोपड़ी मे अवस्थित है । डेढ़ किलो औसत वज़न का, धूसर रंग का और मख्खन जैसा नर्म यह अंग जिसमें लाखों तंत्रिकाओं का जाल है , जिसकी गति किसी तेज़ कम्प्यूटर से भी अधिक तेज़ है मनुष्य के जन्म के साथ ही अस्तित्व में आया है । भ्रूणावस्था में यह हृदय से 15 सेकंड पहले काम करना शुरू कर देता है । इस दुनिया का और मानव जाति का अब तक का सम्पूर्ण विकास यहाँ दर्ज़ है । मनुष्य के सारे अंग काम करना बन्द कर दें लेकिन जब तक मस्तिष्क काम करना बन्द नहीं करता उसे जीवित ही माना जाता है । डॉक्टर द्वारा क्लीनिकल डेथ घोषित करने का अर्थ भी यही है । यह मनुष्य के मस्तिष्क का ही कमाल है कि जिस मनुष्य को अंग ढाँकना तक नही आता था,सीधे खड़े होना नहीं आता था,उंगलियों का उपयोग करना नहीं आता था, वह इसी दिमाग की ताकत से आज चांद तक जा पहुंचा है । यह उसके मस्तिष्क की ही क्षमता है कि आज जो वह सोचता है कल उसे पूरा कर दिखाता है ।
उपसर्ग - उपसर्ग में प्रस्तुत है बर्तोल ब्रेख़्त की यह कविता
जनरल तुम्हारा टैंक एक शक्तिशाली वाहन है
वह जंगलों को रौन्द देता है
और सैकड़ों लोगों को चपेट में ले लेता है
लेकिन उसमें एक दोष है
उसे एक चालक चाहिये

जनरल , तुम्हारा बमवर्षक जहाज शक्तिशाली है
तूफान से तेज़ उड़ता है वह और
एक हाथी से ज़्यादा भारी वज़न उठाता है
लेकिन उसमें एक दोष है
उसे एक कारीगर चाहिये

जनरल आदमी बहुत उपयोगी होता है
वह उड़ सकता है और
हत्या भी कर सकता है
लेकिन उसमें एक दोष है
वह सोच सकता है । 
( बर्तोल ब्रेख़्त की इस कविता का अनुवाद कवि श्री नरेन्द्र जैन द्वारा किया गया है ।सम्पादक बृजनारायण शर्माहरि भटनागर की पत्रिका " रचना समय " से साभार )
यह पोस्ट आपको कैसी लगी . अवश्य बताइयेगा - शरद कोकास
छवि गूगल से साभार