लेखमाला मस्तिष्क की सत्ता -- जीवन में प्रोटीन और डी.एन.ए. का अर्थ
पुरानी फिल्मों के दृश्यों को याद कीजिये ..कटघरे में एक स्त्री खड़ी है और वह चीख चीख कर कह रही है ..इस बच्चे का पिता यही है मी लॉर्ड” । दूसरे कटघरे में एक विलेन टाइप का पुरुष कुटिल मुस्कान के साथ खड़ा है । उसका वकील कह रहा है “ लेकिन इसका तुम्हारे पास क्या सबूत है ?” अब फिल्मों में ऐसा दृश्य नहीं होता इसलिये कि अब समय बदल गया है और विज्ञान ने साबित कर दिया है कि बच्चे के डी.एन.ए. से पिता का डी.एन.ए. मिलाकर यह जाना जा सकता है कि उसका वास्तविक पिता कौन है । अब तो टी.वी.धारावाहिक देखने वाले बच्चे भी इस बात को बखूबी जानते हैं कि बच्चे के पिता का पता लगाने के लिये दोनों के डी.एन.ए. का मिलान आवश्यक है ।
मनुष्य के व कुत्ते के तीन-चौथाई डी.एन.ए. एक जैसे हैं - इस तरह हम देखते हैं कि जीवन के लिये दो रासायनिक व्यवस्थाएँ आवश्यक हैं प्रोटीन तथा डी.एन.ए ( डीआक्सीराइबो नयूक्लीइक एसिड )। हर व्यक्ति का डी.एन.ए. अलग होता है । आजकल के मानव शरीर के डी.एन.ए. अन्य प्राणियों के डी.एन.ए. से भी मिलते हैं जैसे चिम्पांजी और मनुष्य के डी.एन.ए. 99.8 % मिलते हैं तथा कुत्ते व मनुष्य के 75% । (कुत्ते जैसी हरकतें करने वाले इंसानों से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है ) विभिन्न एमीनो एसिड्स के मेल से प्रोटीन बनता हैं तथा न्यूक्लीइक अम्ल न्यूक्लिओटाईड्स से बनता है । इनमें कार्बन नाइट्रोजन के यौगिक शर्करा एवं फास्फेट से जुडे होते हैं । प्रोटीन जीवन की सुनियोजित संरचना का आधार है तथा डी.एन.ए यह निर्धारित करता है कि शरीर में क्या बनाना है।

जल ही जीवन है क्यों कहा जाता है - हमारे सौर परिवार में केवल पृथ्वी पर ही जीवन सभंव हो सका इसका कारण यह है कि प्रोटीन की एंजाइमी किया के लिये मुक्तजल की उपस्थिति अनिवार्य थी । सूर्य से न अधिक दूर न अधिक पास होने की वजह से यहाँ वाष्पीकरण के पश्चात भी काफी जल शेष रहता है । अब आप समझे वैज्ञानिक चन्द्रमा और मंगल पर जीवन की सम्भावनाओं से पहले पानी की तलाश क्यों कर रहे हैं ।जब तक मनुष्य चन्द्रमा पर नहीं गया था वह चन्द्रमा पर दिखाई देने वाले धब्बों को पानी से भरी झीलें ही समझता था । पानी जीवन के लिये इतना ज़रूरी क्यों है यह अब आप जान गये होंगे।
उपसर्ग में आज प्रस्तुत है कवि चन्द्रकांत देवताले की यह कविता " शब्दों की पवित्रता के बारे में "
शब्दों की पवित्रता के बारे में
रोटी सेंकती पत्नी से हँसकर कहा मैने
अगला फुलका बिल्कुल चन्द्रमा की तरह बेदाग़ हो तो जानूँ
उसने याद दिलाया बेदाग़ नहीं होता चन्द्रमा
तो शब्दों की पवित्रता के बारे में सोचने लगा मै
क्या शब्द रह सकते हैं प्रसन्न या उदास केवल अपने से
वह बोली चकोटी पर पड़ी कच्ची रोटी को दिखाते
यह है चन्द्रमा - जैसी दे दूँ इसे क्या बिना ही आँच दिखाये
अवकाश में रहते हैं शब्द शब्दकोष में टंगे नंगे अस्थिपंजर
शायद यही है पवित्रता शब्दों की
अपने अनुभव से हम नष्ट करते हैं कौमार्य शब्दों का
तब वे दहकते हैं और साबित होते हैं प्यार और आक्रमण करने लायक
मैंने कहा सेंक दो रोटी तुम बढ़िया कड़क चुन्दड़ीवाली
नहीं चाहिये मुझको चन्द्रमा जैसी ।
( कविता चन्द्रकांत देवताले के संग्रह " उसके सपने " से व चित्र गूगल से साभार )