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डॉ नरेंद्र नायक अन्द्धश्रद्धा के खिलाफ़ प्रदर्शन करते हुए |
पढ़े-लिखे
होने का मतलब सिर्फ अकादमिक शिक्षा प्राप्त करना नहीं होता । पढ़े-लिखे होने का
अर्थ होता है वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न होना । मेरे कहने का यह तात्पर्य नहीं है
कि जो पढ़े-लिखे नहीं है वे वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न नहीं होते । अफसोस इस बात
का है कि एक ओर हम वैज्ञानिक मान्यताओं पर विश्वास करते हैं फिर भी परम्परा पालन
या बड़ों का मन रखने हेतु बहुत सारी ऐसी बातें मानते हैं जो हम खुद नहीं मानना
चाहते । जैसे...
सूर्यग्रहण
और चन्द्रग्रहण का कारण राहु-केतु द्वारा उन्हें निगला जाना मानते हैं जबकि हम
जानते हैं यह पृथ्वी पर पड़ने वाली चन्द्रमा की छाया के कारण होता है ।
भूकम्प
का कारण शेषनाग का हिलना मानते हैं जबकि हम जानते हैं यह प्लेट्स के खिसकने की वज़ह
से होता है ।
करवा
चौथ पर चांद की पूजा कर, पत्नी को प्रताड़ित करने वाले पति के लिए भी
लम्बी उम्र की दुआयें मांगते हैं जबकि हम जानते हैं चन्द्रमा पृथ्वी का
उपग्रह है और लोग उस पर पिकनिक मना कर आ चुके हैं ।
डीहायड्रेशन
होने पर बच्चे की नज़र उतारते हैं जबकि हम जानते हैं यह पानी की कमी की वज़ह से होता
है ।
हम
वर्षा लाने के लिए यज्ञों में यकीन रखते हैं जबकि वर्षा होने का वैज्ञानिक कारण हम
जानते हैं ।
डायन
या टोनही कहकर किसी स्त्री को प्रताड़ित करते हैं जबकि हम जानते हैं
भूत-प्रेत,जादू-टोना जैसा कुछ नहीं होता और कोई नारी टोनही नहीं होती ।
बिल्ली
के रास्ता काट देने पर या किसी के छींक देने पर ठिठक जाते हैं जबकि हम जानते हैं
बिल्ली अपने भोजन की तलाश में भटकती है सो सड़क पार करती है और छींक नाक में अवरोध
उत्पन्न होने की वज़ह से आती है ।
हम
भूत-प्रेत,पुनर्जन्म, लोक-परलोक, आत्मा,मोक्ष,पाप-पुण्य आदि में आँख मून्दकर
विश्वास करते हैं जबकि हम जानते हैं मरने के बाद आदमी का कुछ शेष नहीं रह जाता ।
कितने
उदाहरण दूँ ? शनिवार को शेविंग नहीं करते हैं ।
गुरूवार
को नए कपडे नहीं पहनते हैं ।
घर
से किसी के बाहर जाने के बाद झाड़ू नहीं लगाते हैं ।
और
ताज़ा ताज़ा उदाहरण दूँ तो ग्लीसरीन के आँसू के सहारे बनाये जाने वाले धारावाहिकों
और फिल्मों को देख कर ज़ार ज़ार रोते हैं और डरावनी फ़िल्में देखकर डरते हैं ।
*यह
मत कहियेगा कि यह सब विज्ञान सम्मत है। इनके पीछे जो भी वैज्ञानिक कारण बताये जाते
हैं उन्हें ही छद्म विज्ञान कहा जाता है । हम बरसों से सुनते आ रहे हैं मरते हुए
एक आदमी को कांच के बॉक्स में रखा गया फिर जब वह मरा तो उसकी आत्मा कांच तोड़ते हुए
बाहर निकल गई । ऐसा कोई प्रयोग दुनिया में हुआ ही नहीं । अगर कोई आपसे कहे तो उससे
पूछें कि किन वैज्ञानिकों की उपस्थिति में दुनिया की किस प्रयोगशाला में यह प्रयोग
हुआ है ? किसी अधिकृत वैज्ञानिक जर्नल में इन पर हुए शोध छपे हैं ? ऐसे ही आप हर
बात के लिए सवाल कर सकते हैं । ज़ाहिर है इनके कारण और परिणाम में कोई सम्बन्ध नहीं
है अर्थात बहुत कुछ मनगढ़ंत है । कुछ लोग यह भी कहते हैं कि उस समय के अनुसार इन अन्द्धविश्वासों
की उपयोगिता थी आज नहीं है , अगर ऐसा है
तो इस समय क्यों इनके पीछे पड़े हुए हैं ?*
हालाँकि
आजकल छद्म विज्ञानियों की एक नई शाखा ने
जन्म लिया है जो अपने छद्म विज्ञान पर आधारित शोधों को अपनी पत्रिकाओं में छापकर
इन पर विश्वास दिलाने का प्रयास कर रही है । मीडिया अपने व्यावसायिक हितों के कारण
इनके साथ है ऐसी बातों को बढ़ावा देने के कारण उसकी टी आर पी बढ़ती है जिसका सीधा
सम्बन्ध उसकी कमाई से है । संतोष यह है कि छपे हुए शब्द पर विश्वास करने वाली अधिसंख्य पढ़ी - लिखी जनता अभी इनके बहकावे में
नहीं आई है ।
मेरा
सवाल ऐसे ही लोगों से है जो अभी भी छद्म और यथार्थ के बीच भटक रहे हैं । ऐसे ना
जाने कितने अन्धविश्वास हैं जिन्हें आपने अपने मस्तिष्क में स्थान दे रखा है ।
इन्हें आप दूर करना भी चाहते हैं लेकिन तथ्यों पर विश्वास
करने में भय महसूस करते हैं । आप स्वयं को आधुनिक और पढ़े-लिखे कहलाना तो पसन्द
करते हैं लेकिन जो परम्पराएं चली आ रही हैं उनकी पड़ताल नहीं करते । आस्था
आपका मार्ग अवरुद्ध करती है और आधा सच और
आधा झूठ स्वीकार करते हुए उसी तरह जीवन भर दोहरे मानदंडों के साथ जीते हुए
पारलौकिक सुख और मोक्ष की कामना करते हुए अंतत: मनुष्य जीवन से मुक्त हो जाते हैं ।
आपके पूर्वज भी ऐसे ही दुनिया से चले गए और आप भी चले जायेंगे ।
*सच
सच बताइए क्या आप ऐसे ही त्रिशंकु की तरह जीते हुए मर जाना पसंद करेंगे ?*
सबा
अकबराबादी ने फरमाया है ...
कब तक नजात पाएँगे वहम ओ यक़ीं से हम
उलझे हुए हैं आज भी दुनिया ओ दीं से हम
*(शरद
कोकास की शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक "मस्तिष्क की सत्ता" से)*