सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

क्या हम सभी दोगले हैं ?


                                 
दीपावली के समय की बात है । ( आप कहेंगे यह होली के समय मैं दीवाली की बात क्यों कर रहा हूँ ?, चलिये छोड़िये .. किस्सा सुनिये ) मैं घर से दूर किसी अन्य शहर में अपने मित्र के यहाँ था । पूजन के पश्चात मैने अपने मित्र से कहा चलो शहर की रोशनी देखकर आते हैं ।हम लोग जब निकलने लगे तो मैने उनसे कहा " दरवाज़ा तो बन्द कर दो । " उन्होने कहा " आज के दिन लक्ष्मी कभी भी आ सकती है , इसलिये दरवाज़ा बन्द नही किया जाता । " मैने कहा  " और चोर आ गये तो ? " और सचमुच ऐसा ही हुआ । जब हम लोग लौटे तो चोर लक्ष्मीजी के पास रखी नकदी पर हाथ साफ कर चुके थे । मैने कहा .." देख लो ,  यह क्यों भूल गये कि जिस दरवाज़े से लक्ष्मी आ सकती है उससे जा भी तो सकती है ।"
          ऐसा और भी शहरों में और भी लोगों के साथ हुआ होगा ।लेकिन इस किस्से का तात्पर्य यह कि इस तरह ठगे जाने से बचने के लिये हमे सायास विश्वास और अन्धविश्वास के इस दुष्चक्र से निकलना बहुत ज़रूरी है । अन्यथा हम जीवन भर उन्हीं मान्यताओं और जर्जर हो चुकी परम्पराओं को ढोते रहेंगे और इसका नुकसान उठाते रहेंगे  । हाँलाकि इससे कोई विशेष नुकसान नहीं है , क्योंकि इतनी बुद्धि तो हम में है कि जैसे ही हमें नुकसान की सम्भावना दिखाई देती है हम सतर्क हो जाते हैं । लेकिन कुछ चालाक लोग, सामान्य लोगों की इस मनोवृति से हमेशा फायदा उठाते हैं और अक्सर  सीधे-सादे लोग अन्धविश्वासों का शिकार बन जाते  हैं । हम लाख सतर्कता बरतें लेकिन कहीं ना कहीं तो ठगे जाते ही हैं । अगर हम चाहते हैं कि हमारा जीवन सहज हो, सरल हो और इस प्रकार की दुर्घटनाओं से रहित हो तो इसके लिये हम वास्तविकता जानने का प्रयास करना होगा । हमें अपने आप को प्रशिक्षित करने की शुरुआत करनी होगी ।इसके लिये सबसे अधिक आवश्यकता है अपने आपको वैज्ञानिक दृष्टि  से लैस करने की , अपने आप में इतिहास बोध जागृत करने की तथा  ऐतिहासिक तथा वैज्ञानिक अध्ययन की ।
आप कहेंगे व्यस्तता के इस युग में अपनी रोजी-रोटी के लिये ज़द्दोज़हद करते हुए इतनी फुर्सत कहाँ है जो इसके लिये किताबें-विताबें पढ़ें । सही है , इसके लिये किताबें पढ़ने की ज़रूरत भी नहीं है । आप तो सिर्फ उसे याद करें जो बचपन से लेकर अब तक आपने अपनी शालेय व महाविद्यालयीन शिक्षा में पढ़ा है । बिना किताबें पढ़े भी हम अपनी सहज बुद्धि से आज जो कुछ हमारे सामने घटित हो रहा है उसका वैज्ञानिक विष्लेषण तो कर ही सकते हैं  ।तर्क के आधार पर अन्धविश्वास कहकर बहुत सारी मिथ्या बातों को  खारिज भी कर सकते हैं ।
 हम अपने दैनन्दिन जीवन में ऐसा करते भी हैं । लेकिन कई बार स्थायी रूप से इसका प्रभाव नही पड़ता । कुछ समय बाद  हम इसे भूल जाते है और दोबारा फिर उसी तरह की किसी घटना का शिकार हो जाते हैं ।शायद इसी लिये आये दिन हम अखबारों में ठगी की वही वही खबरें पढ़ते है.. “ नकली सोना देकर ठगा गया “ नकली बाबा बनकर जेवरात ले गया “ “झाड़फूँक से बच्चे की मौत “आदि आदि । हम पढ़े-लिखे लोग ऐसे लोगों की मूर्खता पर हँसते हैं और  सोचते हैं कि काश इस तरह ठगे जाने से बेहतर लोग इसके बारे में पहले से जान लेते ।
लेकिन हम पढ़े-लिखे लोग और भी उन्नत तरीके से ठगे जाते हैं और इसका हमें पता भी नहीं चलता । उदाहरण के तौर पर मेरी जानकारी में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसने सौ ग्राम की टुथपेस्ट की ट्यूब से पेस्ट निकालकर जाँचा हो कि वह सौ ग्राम है या नहीं । न हम पेट्रोल की जाँच करते है न गैस की न गंगा जल लिखी बोतल की ,कि उसमे गंगा का जल है या नहीं । हम बहुत सारे विश्वासों की जाँच करना चाहते हैं लेकिन हमें विश्वास दिला दिया जाता है ..” आल इस वेल “ । कई बार विश्वास करने के लिये धर्म और ईश्वर के नाम पर भी हमें बाध्य किया जाता है । हम ठगे जाने से कैसे बचें रहें और कोई अन्धविश्वास भी हमारा कोई नुकसान न कर सके इसके लिये सबसे ज़्यादा ज़रूरी है हमारे जीवन में और हमारे आसपास घटित होने वाली हर घटना के पीछे का कारण जानना । इसके लिये हमारे पास पर्याप्त वैज्ञानिक व  ऐतिहासिक ज्ञान व चेतना का होना भी आवश्यक है ।
इस ज्ञान के अंतर्गत  कुछ प्रश्नों के उत्तर जानना अत्यंत  आवश्यक है जैसे कि यह दुनिया कैसे बनी ? बृह्मांड का निर्माण कैसे हुआ ? सूर्य चांद सितारे कहाँ से आये ? पृथ्वी पर जीवन कैसे आया ?,मनुष्य का जन्म कैसे हुआ ? मनुष्य के विकास में उसके मस्तिष्क की क्या भूमिका रही ?,मस्तिष्क कैसे काम करता है ? हम इतर प्राणियों से अलग क्यों हैं ? हम मस्तिष्क में भूत-प्रेत सम्बन्धी सूचनाओं को कैसे दर्ज करते हैं ? हमे भय क्यों लगता है ? भय से मुक्ति कैसे सम्भव है ? हमारे व्यक्तित्व का निर्माण कैसे होता है ? ज्ञान क्या है ? विज्ञान क्या है ?  मन क्या है ? आदि आदि ।
आप कहेंगे इन बातों का विश्वास –अन्धविश्वास से क्या सम्बन्ध है ? और यह सब तो हम जानते हैं ।सही है ,निरक्षरों की बात छोड़ भी दें लेकिन पढ़ा-लिखा हर व्यक्ति स्कूल कॉलेज में ,पाठ्य पुस्तकों में इन बातों को पढ़ चुका होता है, फिर भी वह अन्धविश्वासों से क्यों घिरा होता है ? क्यों वह अपने जीवन मे कई बार धोखा खाता है ? इस बात पर भी सोचने की आवश्यकता है । इन्हे इन प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में समझने की भी आवश्यकता है । इसका मूल कारण मनुष्य के मस्तिष्क में लागू वह दोहरी प्रणाली है जिसकी  वज़ह से वह विश्वास और अन्धविश्वास के बीच झूलता रहता है और सही समय पर सही निर्णय नहीं ले पाता ।
यह कैसे घटित होता है यह जानने से पूर्व बृह्मान्ड की उत्पत्ति से लेकर मनुष्य की उत्पत्ति तक की कथा का संक्षेप में पुनर्पाठ ज़रूरी है  । तो अगली पोस्ट से प्रारम्भ करते है उस समय की बात से जब इस दुनिया में कुछ नही था । - शरद कोकास
छवि गूगल से साभार

37 टिप्‍पणियां:

  1. शुरू किजिये लेके लक्ष्मी मैया का नाम्।

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  2. सही है सवाल मानव मस्तिषक के द्वंद और दोहरी प्रणाली का ही है..अगले अंक का इन्तजार है.

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  3. विश्वास अन्धविश्वास और ज्ञान तीनोँ interdependent हैं जहाँ एक ख़त्म होता है वहीँ दूसरे की शुरुआत होती है.

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  4. आप जिसे दोगलापन कह रहे हैं ...मैं द्वंद्व मानती हूँ ...अंतर्द्वंद्व ...दिल और दिमाग का ...किसकी सुने ....
    आस्था की या विज्ञान की ....विज्ञान अंतहीन सवालों में उलझाता है ...आस्था सुकून देती है ...
    अगली कड़ियों का इन्तजार रहेगा ....

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  5. विचार अति उत्तम हैं...'विज्ञान' की बात पर किन्तु यह बता दीजियेगा कि आदमी को ही केवल नहीं, सब छोटे, निकृष्ट प्राणियों को भी स्वप्न कैसे दिखाई पड़ते हैं सुप्तावस्था में,,,और 'जोगियों' को जागृत अवस्था में भी?

    आपने अपने मित्र के 'मूर्ख' बनने का अनुभव उसकी तुलना में अपने को बुद्धिमान मान सुनाया. किन्तु आप भी बहुत बार अवश्य ठगे गए होगे,,,जो, सीढ़ी के पायदान सामान, दर्शाता है कि कोई सम्पूर्ण ज्ञानी भी हो सकता है जो अदृश्य हो शायद, और सबको - खास तौर पर 'बुद्धिमान' व्यक्ति को - मूर्ख बनाने में उसे अधिक मजा आता हो...:)?????? (मेरी अनपढ़ किन्तु अनुभवी माँ अपनी पहाड़ी भाषा में एक प्राचीन कहावत दोहराती थी "अति चतुराक नाक में गू :)

    कविता सुन कविता सुनाने का मन होना स्वाभाविक है...मैं गौहाटी १९८० फरवरी माह में पहुंचा था. मेरी पत्नी कि आरथ्राईतिस के कारण काफी तकलीफ थी,,,जिस कारण मैंने अपने कार्यालय में कुछ स्टाफ को कहा था वो मुझे बताएं यदि कोई हर्बल आदि जड़ी-बूटी से इलाज करता हो.

    एक दिन मुझे किसी ने बताया कि वो किसी ऐसे ही व्यक्ति को मेरे निवास स्थान पर बिठा के आया है...मेरा चेहरा देखते ही वो बोला कि मेरे परिवार में किसी को ऊंचा रक्तचाप चल रहा था! (उसका अनुभव सुना,,,किन्तु यहाँ नहीं बता रहा हूँ)...खैर फिर उसने बताया कैसे वो अगले दिन आएगा और सरसों के तेल में दवाई बनाएगा जिसके लिए मैं बाज़ार से उसकी फेहरिस्त के अनुसार सामग्री ले आऊँ...बात आई- गयी हो गयी थी, किन्तु आश्चर्य तब हुआ जब मेरे बड़े भाई का तार लगभग एक पखवाड़े के भीतर ही मिला कि हमारे ७५ वर्षीय पिताजी को हमारे पैत्रिक निवास स्थान पर हार्ट अटैक हुआ था और वो उनके पास पहुँच गए थे दिल्ली से!!!!!!

    मेरे चेहरे से उसने कैसे पढ़ा क्या होने का अंदेशा था??? क्या 'माया' का अर्थ है कि मानव जीवन की कहानी सचमुच एक फिल्म के सामान है जिसे 'अधिक ज्ञानी'/ जोगी अपनी तीसरी आँख में देख सकता है: वैसे ही जैसे हम विज्ञान की प्रगति के कारण 'वीसीआर' में फिल्म को देखते हैं और आगे- पीछे भी कर कोई भी दृश्य बार बार देख सकते हैं???

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  6. ""लेकिन हम पढ़े-लिखे लोग और भी उन्नत तरीके से ठगे जाते हैं और इसका हमें पता भी नहीं चलता । उदाहरण के तौर पर मेरी जानकारी में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसने सौ ग्राम की टुथपेस्ट की ट्यूब से पेस्ट निकालकर जाँचा हो कि वह सौ ग्राम है या नहीं । न हम पेट्रोल की जाँच करते है न गैस की न गंगा जल लिखी बोतल की ,कि उसमे गंगा का जल है या नहीं । हम बहुत सारे विश्वासों की जाँच करना चाहते हैं लेकिन हमें विश्वास दिला दिया जाता है ..” आल इस वेल “ । कई बार विश्वास करने के लिये धर्म और ईश्वर के नाम पर भी हमें बाध्य किया जाता है । हम ठगे जाने से कैसे बचें रहें और कोई अन्धविश्वास भी हमारा कोई नुकसान न कर सके इसके लिये सबसे ज़्यादा ज़रूरी है हमारे जीवन में और हमारे आसपास घटित होने वाली हर घटना के पीछे का कारण जानना । इसके लिये हमारे पास पर्याप्त वैज्ञानिक व ऐतिहासिक ज्ञान व चेतना का होना भी आवश्यक है ।"
    सवाल तो आपनें सही उठाया है पर दिक्कत यह है कि लोंगों के पास विकल्प लगभग शून्य हैं-कैसे फिर कदम-कदम पर उपभोग की बस्तुओं की जांच आम आदमी करे.

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  7. नैट पर हिन्दी में मूल विज्ञान साहित्य में वृद्धि के इस संकल्प के लिए बधाई!

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  8. चोर दीवाली की रात सबसे सक्रिय रहते हैं।

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  9. मैं वाणी जी से सहम्त हूँ । आलेख बहुत अच्छा लगा कई प्रश्न मन को मथने लगे हैं धन्यवाद्

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  10. @जेसी आपके घर में किसी को पेट में दर्द होता है । आपके यहाँ किसी को कम दिखाई देता है । आप सबका भला करते हैं कोई आपका भला नहीं करता । आप परोपकार करते हैं । आप जितना कमाते हैं उससे ज़्यादा खर्च हो जाता है । आप दफ्तर मे सबसे ज़्यादा काम करते है फिर भी आपकी प्रशंसा नही होती .. ऐसी बहुत सी बाते हैं जिन्हे कहने के लिये आपका चेहरा पढ़ने की ज़रूरत नही है

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  11. main vaani geet our maa nirmala ke vichar se sahamat nahi hun.aapne bahut acchi baat kahi hai.aastha, dhong, andhaviswas hame sachmuc dogla bana chuki hai.itani acche vicar par jo comments aaye hai--- ascharyajanak hai.
    pls sharadji keep continue.hamare desh me acche vicharo ka aise hi virodh hota hai our majak udaya jaata hai.

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  12. अपनी बात को सरल ढंग से इस तरह से कहना कि उसका मन्तव्य सीधे पाठकों के दिल में उतर जाए, कोई आपसे से सीखे।

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  13. सही कहा है आपने ..कुछ विश्वास या रिवाज़ जब बने तब उस परिवेश में वो ठीक रहे होंगे पर आज के माहोल में उनपर आँख बंद करके चलना बेबकूफी ही है

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  14. शरदजी, बुरा मत मानना: ५ रुपैये के फटे नोट को भी अपने बटुए में पा आपको लग सकता है कि किसी ने आपको मूर्ख बना दिया. अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि शायद आपकी भी पहली प्रतिक्रिया होगी जानने की कि कैसे आपके आम तौर पर इतना सजग रहते हुए भी किसी दुकानदार ने उसे आपको दे दिया? हो सकता है कि क्यूंकि आपका ध्यान किसी और उससे महत्त्वपूर्ण विषय पर उलझा हुआ था जिस कारण आपने ध्यान नहीं दिया - ऐसा सोच आप अपने आप को बहला लें. फिर आपकी कोशिश होगी कि कैसे अन्य अच्छे नोट के बीच रख वही करें जो किसी ने आपके साथ शायद किया था! और यदि उसने उसे रख लिया अपने गल्ले में तो आपकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहेगा!

    भारत एक विशाल देश है जहां अनंत ज्ञान छुपा हुआ है कोने कोने में...और जहां तक उस व्यक्ति का सम्बन्ध है उसने छूटते ही केवल मेरे किसी रिश्तेदार के बढे रक्तचाप की ही बात की थी,,,और उस नौगाँव निवासी का पेशा विभिन्न साँपों, विषधरों, को पकड़ उनके विष बेचने का था - जिसका ज्ञान उसने हिमालय निवासी जोगियों से प्राप्त किया था अपनी कोलकाता स्तिथ दवाई की कम्पनी छोड़ कर, उनकी सेवा कर,,,और उसके बाद कुछेक सांप वो मुझे भी दिखा गया और मेरा भी ज्ञानवर्धन कर गया!...

    मेरा कार्यालय कामाख्या माँ के शक्ति पीठ पर बने मंदिर, भारत के उत्तर-पूर्वी स्थान, के निकट ही था...ऐसी मान्यता है कि उस शक्ति पीठ पर शिव ('विषधर', नीलकंठ महादेव) की अर्धांगिनी सती की जननेंद्रिय गिरी थी, विष्णु द्वारा उनका शरीर उनकी मृत्योपरांत काट दिए जाने के बाद...और वहाँ परंपरानुसार तांत्रिकों का मेला लगता है हर वर्ष - जैसे कुम्भ या महाकुम्भ का मेला लगता है गंगा किनारे आदि हर ६, या १२ वर्ष जो बृहस्पति के सूर्य की एक परिक्रमा के एक चक्कर लगाने के समय के बराबर है...और मानव शरीर को अष्ट-चक्र या आठ ग्रहों के सार से बना माना जाता है - जबकि नवें ग्रह शनि को सूर्यपुत्र माना जाता है जो सब आठों ग्रहों की सूचना मष्तिष्क तक पहुँचाने का काम करता है, (सांकेतिक भाषा में 'कुंडली मारे सांप' के पूँछ पर अलग अलग स्तर तक खड़े होने सामान), जो एक व्यक्ति से दूसरे तक इस कारण एक सी नहीं होती...जबकि केवल अदृश्य शिव (सत्यम श्हिवं सुंदरम वाले) ही सर्वगुण-सम्पन्न माने गये है...

    शब्दों से किसी 'सत्य' का सही बयानं नहीं हो सकता, किन्तु आदमी की मजबूरी है शब्दों का प्रयोग करने में यदि कोई किसी दूसरे को कुछ अनुभव बताना चाहे, खास तौर पर लिख कर, क्यूंकि उसे समझने के लिए उसे अपना दिमाग लगाना होगा :)

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  15. ऐसा और भी शहरों में और भी लोगों के साथ हुआ होगा ।लेकिन इस किस्से का तात्पर्य यह कि इस तरह ठगे जाने से बचने के लिये हमे सायास विश्वास और अन्धविश्वास के इस दुष्चक्र से निकलना बहुत ज़रूरी है । अन्यथा हम जीवन भर उन्हीं मान्यताओं और जर्जर हो चुकी परम्पराओं को ढोते रहेंगे और इसका नुकसान उठाते रहेंगे ।
    Bilkul sahee kaha!

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    और यह सब तो हम जानते हैं ।सही है ,निरक्षरों की बात छोड़ भी दें लेकिन पढ़ा-लिखा हर व्यक्ति स्कूल कॉलेज में ,पाठ्य पुस्तकों में इन बातों को पढ़ चुका होता है, फिर भी वह अन्धविश्वासों से क्यों घिरा होता है ? क्यों वह अपने जीवन मे कई बार धोखा खाता है ? इस बात पर भी सोचने की आवश्यकता है । इन्हे इन प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में समझने की भी आवश्यकता है । इसका मूल कारण मनुष्य के मस्तिष्क में लागू वह दोहरी प्रणाली है जिसकी वज़ह से वह विश्वास और अन्धविश्वास के बीच झूलता रहता है और सही समय पर सही निर्णय नहीं ले पाता ।
    यह कैसे घटित होता है यह जानने से पूर्व बृह्मान्ड की उत्पत्ति से लेकर मनुष्य की उत्पत्ति तक की कथा का संक्षेप में पुनर्पाठ ज़रूरी है । तो अगली पोस्ट से प्रारम्भ करते है उस समय की बात से जब इस दुनिया में कुछ नही था ।


    आदरणीय शरद जी,

    उत्सुकता से इंतजार कर रहे हैं बृह्मान्ड की उत्पत्ति से लेकर मनुष्य की उत्पत्ति तक की कथा के पुनर्पाठ का।

    आभार!

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  17. हाँ यह कहा जा सकता है कि यदि किसी को पता हो कि किस तरह से आम तौर पर ठग काम करते हैं तो आदमी कुछ सावधानी बरत सकता है...किन्तु मैं ही अपने अनुभव से आपको बता सकता हूँ कि कैसे स्त्रियाँ ही सोने से जुडी होती हैं और ठगी भी जाती हैं: ६० के दशक में हम पटेल नगर में रहते थे जब हमारे पड़ोस में रहने वाली एक काफी होशियार औरत को एक लहन्गाधारी गाँव वाली औरत बाज़ार में मिली...उसको बताया कि कैसे उसे लड़की के ऑपरेशन के लिए ३००० रु चाहिए थे और उसको एक सोने की माला का मनका दिखाया और उसको निकट ही स्तिथ सुनार के वहां टेस्ट करने को बोला, और साथ ही कई अन्य मनके भी एक थैले में दिखाए जो सब उसने उसे ३०००/= में देने का सुझाव दिया...वो सोने का ही निकला तो उसको घर लेजा कर उसके सामने ही अपनी अलमारी से पैसे दे दिए और मनके की थैली ले ली...किन्तु उस औरत के चले जाने के कुछ समय बाद ही उसको लगा कि वो ठगी गयी थी! तुरंत वो सुनार के पास फिर गयी और तब जाना की सब पीतल के मनके थे, एक भी सोने का नहीं था :(
    ऐसी ही एक घटना हमारे कार्यालय के एक कर्मचारी कि विधवा बुआ के साथ भी हुई...उसके अनुसार वो अपने संदूक को हमेशा ताला लगा कर रखती थी और अपने भतीजे पर भी विश्वास नहीं करती थी! किन्तु एक दिन बाज़ार गयी तो वहां से लौटते समय एक बाबा के चक्कर में लायी गयी, नाटकीय अंदाज़ में एक लड़के द्वारा,,,बाबाने उसका सोना दुगना करने का प्रलोभन दिया और नाटकीय अंदाज़ में उसको बताया कि वो स्वयं हाथ भी नहीं लगायेंगे क्यूंकि उनके लिए सोना मिटटी था! सब आभूषण उतरवा लिफाफे में डलवा के पीछे मुड कर एक पेड़ की पट्टी तोड़ उस पर रखने को बोल उसने उसी बीच लोहे के तार वाला लिफाफा रख दिया जिसे उसने कहा की वो तकिया के नीचे रखे और सुबह तक लिफाफे को न खोले तो वो दुगने हो जायेंगे! उसको भी घर पहुँच के आभास हुआ की वो ठगी गयी थी, खोलने पर लोहे के तार निकले!

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  18. देखिये शिक्षित होने का जो सामान्य अर्थ लगाया जाता है वह बेहद अपर्याप्त है। मेरा अनुभव है कि विज्ञान और तकनीक की डिग्रियां रखने वाले अपने बाज़ार भाव के कारण माने तो बहुत शिक्षित हैं लेकिन अक्सर महाकूपमण्डूक होते हैं। कालेज़ में फिजिक्स पढ़ाने वाला प्रोफ़ेसर घर में ग्रह शान्ति कराता है और डाक्टर अन्य व्यापारियों की ही तरह लक्ष्मी पूजा करके काम शुरु करता है। वैसे लक्ष्मी पूजा का अभिधार्थ ही है पैसे को वरीयता देना, उसकी भक्ति करना यानि उसके लिये कुछ भी करने को तैयार रहना।

    तार्किकता एक दार्शनिक समझदारी का मामला है और वह डिग्रियों या लक्ष्मी की आराधना से तो नहीं आ सकती।

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  19. शरद भाई हमे तो ब्लोगर उत्तेजक शीर्षक देकर ठग लेते है कई बार
    पोस्ट पढो तो खुद की बेबकूफ़ी पर हन्सी भी आती है और तरस भी. अब शिकायत करे तो किससे. कभी ये भी होता है कि सदभावना से पोस्ट या टीप लिखो और अगला लडने को तैयार वो तो महफ़ूज़ मिया के बल्लम का थोडा सा भरोसा है पर देखा है कि वो भी तब दिखाई देते है जब हमारी फ़जीहत हो चुकी होती है अब आयेन्गे तो कहेन्गे कि बल्लम हमे ही दे दो तुम्हे कहा ढूढते फ़िरेन्गे.

    और ठगी पर तो इतना ही कहेगे -
    लोभी समाज मे ठग भूखा नही रहता (नटवर लाल)

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  20. पाठकों के जवाब टिप्पनिओं में ही दे दिया करिए..पोस्ट में लिखने से श्रृंखला का प्रवाह टूटेगा.

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  21. @JC -ठगी के इन उदाहरणों क प्रस्तुत करने के लिये आपका बहुत बह्त धन्यवाद यह सही है कि ऐसे अनेक किस्से हमारे आसपास बिखरे हैं। मैने भी अपनी बैंक की नौकरी के दौरान देखा है( इसीलिये पाँच रुपये का फटा नोट तो मै बैंक मे ही बदलता ) कि परिसर में ही लोग नोट गिनने के बहाने नोटों पर हाथ साफ कर देते हैं और वाहन चालक का ध्यान किसी और जगह भटकाकर उसका बैग पार कर देते हैं । यह तो खैर छोटी -मोटी ठगी हुई लेकिन यहाँ तो बड़े बड़े ठग मौजूद हैं जो सरकार को भी चूना लगा देते हैं । दुख तब होता है जब आम आदमी ठगी का शिकार होता है ।
    कामाख्या मन्दिर के बारे में बताते हुए आपने ही बताया है कि ऐसी मान्यता है या ऐसा मानना है । यह आपने मेरी बात का सही विश्लेषण किया है । आगे के लेखों में हम यही देखेंगे कि ऐसी मान्यतायें किस तरह स्थापित होती हैं और कैसे जन जीवन में उनका प्रभाव व्याप्त होता है । आप बहुत रुचि से इन लेखों का अध्ययन कर रहे हैं और विस्तार से टिप्पणी भी दे रहे हैं यह देखकर प्रसन्नता हुई । आगे के भी लेखों पर आपकी विस्तृत विवेचना की प्रतीक्षा रहेगी ।
    @ अशोक जी आपने सही कहा है - यह दोगलापन अस्वाभाविक नहीं है । जिसे हम शिक्षित समाज कहते हैं वहाँ हर कोई इसे जी रहा है । यह किस तरह बचपन से हमारे अवचेतन में अपनी जगह बना लेता है यह हम आगे चलकर विस्तार से देखेंगे ।
    @ ज़ाकिर भाई , मेरा यह प्रयास रहेगा कि कठिन बातों को भी सरल भाषा में रखने की कोशिश करूँ वैसे ब्लॉगजगत में भाषा की समस्या नहीं है यहाँ हर तर्ह की भाषा ग्राह्य है फिर भी ...।
    @वाणी जी ,अंतर्द्वन्द्व दिल और दिमाग के बीच नहीं होता जो कुछ घटित होता है वह सिर्फ मस्तिष्क में घटित होता है । यह बात मैं पूर्व में भी लिख चुका हूँ । यह कैसे घटित होता है यह हम आगे विस्तार से देखेंगे ।
    @ द्विवेदी जी - आपके कहने का आशय मैं समझ रहा हूँ । इस तरह की बातों से नेट ही नहीं किताबें भी भरी पड़ी हैं । मेरा उद्देशय केवल सूचनायें या जानकारी में वृद्धि करना नहीं है । मै चाहता हूँ कि इस के एक दूसरे पक्ष को यहाँ प्रस्तुत किया जाये जिससे हम अपने मस्तिष्क की कार्यप्रणाली को समझते हुए अपनी चेतना का विस्तार कर सकें और उसे सही दिशा दे सकें । सहयोग बनाये रखने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद ।
    @ लवली जी आपकी बात पर मैने अमल करना शुरू कर दिया है ।आप ने इस विषय का विस्ट्रत अध्ययन किया है अत: आपसे भी
    निवेदन है कि इस चर्चा में हस्तक्षेप करें । J C की साँप वाले बात पर मुझे आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा थी ।

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  22. "J C की साँप वाले बात" - जरा साफ करें..मैं समझी नही..प्रश्न/जिज्ञासा क्या थी?

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  23. मुझे खेद है कि मैंने आरंभ में ही अपनी टिप्पणी दे दी क्यूंकि आपने 'विज्ञानं' शब्द का उपयोग किया, और एक शब्द ही काफी होता है मानस मंथन के लिए,,,और मैं भी एक 'वैज्ञानिक' रहा हूँ 'अवकाश प्राप्ति' से पूर्व 'बाँधों' से, अवरोधकों से, सम्बंधित भी रहा हूँ :)...और इंजिनियर होने के कारण सर्वे विषय कि पढाई के माध्यम से ही मैंने जाना कि हमको संपूर्ण की सीमा को निश्चित कर अन्य उसके भीतर समाये किसी छोटे क्षेत्र का सर्वे करना चाहिए, न कि छोटे छोटे अनंत क्षेत्रों से सम्पूर्ण को जानने की कोशिश करना क्यूंकि थोड़ी थोड़ी गलती हरेक क्षेत्र में होना संभव है जो मिलकर एक बड़ी गलती बन जाएगा...इसी कारण सिद्धि पर जोर दिया गया प्राचीन ज्ञानियों द्वारा..

    डा. दराल के शब्दों में सबसे सरल होता है 'संयोग' शब्द का उपयोग जब हम गहराई में जाने से डरते हैं या जाना नहीं चाहते क्यूंकि तब बहुत पढना पड़ेगा...जैसे उदाहरण के तौर पर यह सबके साथ लगभग होता है कि हम दो जन किसी तीसरे व्यक्ति की बात करते हैं और यदि 'संयोगवश' उसी क्षण वो आ भी जाता है! हम कहते हैं 'तेरी उम्र बहुत लम्बी है, हम तेरी ही बात कर रहे थे!" किन्तु जब मेरे/ आप जैसे "गीता" में पढ़ लें कि 'कृष्ण' सबके भीतर हैं तो हो सकता है आप 'सत्य की खोज' में लग जायें, खास तौर पर जब उसमें यह भी पढ़े, सर्वगुण संपन्न, 'योगिराज कृष्ण' को तीरंदाज़, धनुर्धर, अर्जुन को समझाते कि वो केवल 'निमित्त मात्र' है, एक अज्ञानी, और उसका काम सिर्फ तीर चलाना है, सही- गलत के चक्कर में बिना पड़े :)..."हरी अनंत / हरी कथा अनंता..."

    दुर्ग (स्टील प्लांट के लिए प्रसिद्द, और यह धातु 'शनि' से जोड़ा गया है :) के पास से मैं सन '६५ में पहली बार गुजरा था, अपने विवाह के सम्बन्ध में, क्यूंकि मेरी ससुराल तब जगदलपुर, मध्य प्रदेश में थी और अभी भी एम् पी में ही है कुछ वर्षों से क्यूंकि मेरे 'अवकाश प्राप्त' शालिग्राम ने छत्तीसगढ़ बनने के कुछ वर्ष पश्चात इंदौर में निवास का निर्णय ले लिया ('महाकाल' के निकट पहुँच गए :)...और मेरी दूसरी बेटी भी 'बैंक' में कार्यरत है...जबकि अन्य दोनों ग्राफिक डिज़ाईनर हैं और, यद्यपि तीनों अब विवाहित हैं, उन्ही की कृपा से कम्पुटर है मेरे ऊपर नज़र रखने क लिए :) और मैं 'पंगा' ले पाता हूँ आप जैसे पढ़े लिखों से..."बुरा न मानो / होली है!" (होली तो 'कृष्ण' ने खेली जो चीनियों और जापानियों को पीला रंग गए, अमेरिकेन को लाल, अंग्रेजों को सफ़ेद, और अफ्रीकन को काला, आदि आदि :)

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  24. @ JC आपकी बातों में आनन्द आ रहा है । उम्मीद है पठकों को भी आ रहा होगा ।अब इसे भी हम संयोग कहेंगे कि इस मोड़ पर आपसे मुलाकात हुई । आप पढ़े-लिखों से पंगा नहीं ले रहे हैं बल्कि उनका सहयोग कर रहे हैं । आप वैज्ञानिक हैं यह जानकर प्रसन्नता हुई ( रहे हैं ऐसा मैं नहीं कहूंगा क्योंकि वैज्ञानिक आजीवन वैज्ञानिक ही रहता है )
    होली आ रही है और आपने पूरी दुनिया के रंग बता दिये ..हम भारतीय तो हर रंग में रंगे हैं ,इसलिये कि प्रकृति ने हमे सब रंग दिये हैं । शुभकामनायें ।

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  25. मेरी समझ से इस अंधविश्वास के जड़ में भविष्य को ना जानने का 'भय' ही है...कहीं कुछ अनिष्ट ना घट जाए...यही डर मनुष्य की तार्किक शक्ति को हर लेता है...अब अपने आलेखों में आप यह सब स्पष्ट करने वाले हैं... "हमे भय क्यों लगता है ? भय से मुक्ति कैसे सम्भव है ?"
    प्रतीक्षा है इस श्रृंखला की अगली कड़ियों की..

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  26. शरद जी, जैसा रष्मि जी ने कहा, और अन्य प्राचीन ज्ञानी भी कह गए हैं, 'अनजाने का भय' ही हमारी बुद्धि हर लेता है: वे भय, घृणा, लालच. घमंड आदि अनुभूतियों को 'नरक के द्वार' कह गए,,,और सांकेतिक भाषा में 'नटराज शिव' के चार में से एक हाथ को 'अभय मुद्रा' में उठाया दिखाया जाता है जबकि 'अपस्मरा पुरुष' यानि भुलक्कड़ मानव को उनके पैर तले लेटा...और मानव शरीर की संरचना को प्राचीन 'वैज्ञानिकों' ने जाना 'मूलाधार' ('टेल-बोन' के 'टिप') से मस्तिष्क में स्तिथ 'सहस्रार' चक्र, आठ बिन्दुओं में विभाजित शक्ति के केंद्र स्थल, जहाँ आठों दिशाओं की सूचना चौसंठ अंशों ('योगिनी') में प्रस्तुत जानी गयी...किन्तु सम्पूर्ण ज्ञान के लिए हर 'योगी' के लिए आवश्यक जाना गया आठ स्तर पर प्राप्त 'योगिनियों' के जोड़ को मस्तिष्क तक उठाया जाना शनि ग्रह के सार, नर्वस सिस्टम, द्वारा,,,(जैसे आप और हम भूमिगत टैंक में उपलब्ध जल को आठवें माले पर स्तिथ टैंक तक बिजली अथवा पेट्रोल आदि से जनित शक्ति के माध्यम से उठा दिन भर इस्तेमाल कर पाते हैं...

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  27. शरद जी जब तक आप अपने तर्क पेश करने की तैय्यारी कर रहे हैं मैं कहना चाहूँगा कि अविश्वास ही पहले होता है, और विश्वास अथवा अन्धविश्वाश बाद में चारों ओर से सत्यापन के बाद ही उपजाया जा सकता है...पैदाइश के समय हर बच्चा भोला होता है, किन्तु जीवन के अधिकतर कटु अनुभव के आधार पर शक करना मानव की प्रकृति बन जाती है, किसी की अधिक तो किसी की कम...

    उदाहरण के तौर पर, 'भारत' में परंपरा है कि जब हम किसी अनजाने को भी पहली बार बस में या ट्रेन आदि में मिलते हैं तो वो हमारे बारे में सब बातें जान लेना चाहता है, जबकि 'अंग्रेज़' के बारे में प्रसिद्द है वे अनजाने से बोलते भी नहीं है...

    ऐसे ही मेरे साथ कई बार हुआ है कि जब मैंने "आपके कितने बच्चे हैं?" के जवाब में कहा "तीन बेटियाँ" तो तपाक से अगला प्रश्न होता था "लड़का कोई नहीं है ?!" मन करता था कहूं कि लड़का दूसरी अनब्याही पत्नी से है, पर किसी को बताना नहीं इसे गुप्त रखना, केवल हमारे तुम्हारे बीच :)...

    और यदि कोई घटना बार बार होती है तो उसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से 'सत्य' माना जाता है - और हर 'वैज्ञानिक नियम' के अपवाद संभव है समय और स्थान पर निर्भर या आधारित: जैसा आपने बताया कि कैसे अभी आप बैंक में कार्यरत होने के कारण फटे नोट पा विचलित नहीं होंगे :)

    और, यद्यपि वो साधारणतया निर्धारित कार्य अवश्य करेगा, किन्तु यदि तापमान सही न हो तो दूध का दही भी नहीं बन पायेगा सूक्ष्माणु द्वारा...और 'वैज्ञानिक' भी मानते हैं कि आदमी ही ऐसा जानवर है जो बढ़िया ए सी कमरे में भी बिठा दो तो भी जो काम उसे दिया गया है संभव है वो ही नहीं करेगा, अन्य कुछ खुराफात में लगा रहेगा शायद :)

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  28. ग़ज़ब की है भई ये पोस्ट ... ऐसे और इस तरीके से कभी सोचा न था .... आपने दिमाग़ के कुछ और तंतुओं को छेड़ दिया आज ....

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  29. दोगले पन की कई मिसाले निरंतर सर्वत्र दिखाई ही देती रहती है.
    कबीर दास तो इस तरफ बहुत पहले ही इशारा कर गए..........

    मुख में राम बगल में छुरी

    खैर आपकी अगली कड़ी का इंतजार बेसब्री से है, कारण कि भूमिका बहुत जबरदस्त बन चुकी है .......

    और टिपण्णी में JC और आपके विचारों से रोचकता कई गुना यूँ ही बढ़ गई है.

    होली की अग्रिम रूप से हार्दिक बधाइयाँ.

    चन्द्र मोहन गुप्त

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  30. शरद जी ~ आप ने अपनी पिछली पोस्ट में सही कहा, "बृह्मांड के रहस्य को आज भी पूरी तरह नहीं जाना जा सका है लेकिन जितना हम जानते हैं उसे जानने में भी मनुष्य को लगभग 2000 वर्षों का समय तो लगा ही है ।..."

    न्यूटन को गुजरे अभी अधिक समय नहीं बीता है...वो भी कुछ ऐसे शब्द कह गया कि "जो कुछ उसने पाया वो समुद्र के किनारे पाए गए कुछ चमकीले शेल आदि हैं जबकि (अज्ञान का) पूरा समुद्र अभी हमारे सामने पड़ा है"...

    और निजी अनुभव से मैंने सन '८२, फरवरी माह में लगभग 'वीणा वादिनी सरस्वती' पूजा के निकट सर फ्रेड होयल का कथन, जब में मणिपुर में था, समाचार पत्र में पढ़ा,,,जिसमें उसने माना कि "पृथ्वी में 'जीवन की 'काम्प्लेक्स केमिकल (रासायनिक) संरचना' देख मानना ही पड़ेगा कि यह कोई एक्सिडेंट (यानि दुर्घटना) का नतीजा नहीं हो सकता,,,,इसमें किसी अधिक बुद्धिमान जीव का हाथ है जो कभी पृथ्वी या अन्य किसी ग्रह आदि में कहीं और रहा होगा"...किन्तु उसने इसके पीछे किसी 'डिवाइन' जीव का हाथ होने से साफ़ इंकार किया...मैंने उसे केमब्रिज विश्वविद्यालय के पते पर लिखा कि उस बुद्धिमान जीव को हो सकता है किसी और उससे विद्वान जीव ने बनाया हो? उसको भगवान् कहने में आपको क्या आपत्ति है? (मैंने साथ साथ एक टेबल भी भेजी जिसमें मैंने नूतन भारत के जन्म, १५ अगस्त १९४७, रात के बारह यानि जेरो बजे के आधार पर अपने उन दिनों के कंप्यूटर के विषय में प्राप्त ज्ञान के आधार पर कुछ घटनाओं को दर्शाया था, और कुछ अपनी टिप्पणी भी दी...)...

    उसके उत्तर में उनकी सेक्रेटरी ने लिखा कि यद्यपि उन्हें अच्छा लगा पढ़ किन्तु वो अत्यंत व्यस्त होने के कारण मुझसे पत्र व्यवहार करने में असमर्थ हैं :)

    और फिर समाचार पत्र से ही जाना स्टेफेन हौकिंग ने ८ जनवरी २००१ में दिल्ली में प्रश्न, कि वो भगवान् में विश्वास करते हैं कि नहीं? के उत्तर में कहा कि "वो भगवान् के मन में प्रवेश करना चाहेंगे"!!!

    उपरोक्त से शायद हम जान पाएं कि विज्ञान को अभी बहुत लम्बा सफ़र करना है...जबकि 'भारत' में इस विषय पर इतनी सामग्री उपलब्ध है कि एक मानव जीवन उसके लिए काफी नहीं है,,,किन्तु संभव है अब तक विज्ञान के माध्यम से प्राप्त ज्ञान से उन्हें कुछ कुछ समझ पाना,,,जिसके लिए हम और आपको पौराणिक कहानियों को दुबारा पड़ना पड़ेगा - यह मान कि उन्होंने, प्राचीन योगियों ने, जो लिखा उनका असली अर्थ क्या था (क्यूंकि यह भी सत्य है कि जब आधुनिक मानव चाँद पर हाल ही में पहुँच पाया तो हमने कहा कि हमारे नारद मुनि तो केवल वीणा हाथ में लिए लोक-परलोक कि यात्रा करते थे!!!)...

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  31. "इंतज़ार और अभी और अभी और अभी"!
    हमारे बाल्य-काल में विडियो गेम आदि नहीं होते थे,,,रोज के मौसम के अनुसार अनेक खेल तो होते ही थे, पर हमें इंतज़ार रहता था कठपुतली का नाच, नट के रस्सी पर नाचने, अपनी कालोनी या पडोश में आयोजित रामलीला आदि का - अपने मनोरंजन के लिए...रामलीला में स्टेज पर जब, पर्दा गिरा, अगला दृश्य तैयार किया जा रहा होता था तो पर्दे के आगे एक विदूषक आ जाता था और कुछ ऊट-पटांग लघुनाटक सा, या कविता, आदि सुनाता था जिससे अधिकतर बच्चों को चाहे समझ आये या नहीं हंसने का मौका मिल जाता था: जैसे उसकी एक लाइन आज भी भूली नहीं है (जब कि पता नहीं 'अनंत' को भुला चुका हूँगा, कल क्या खाया याद नहीं रहता), "आज तक फोड़ता था बृज में मैं गागरिया / आज तो फोड़ दी तकदीर हमारी इसने!" (शायद इस लिए कि यह 'कृष्ण' से सम्बंधित थी, और हम आज टीवी आदि में 'सत्य' देखते हैं कि कैसे 'भारत' कि कोर्ट-कचहरी में '(कृष्ण की) गीता' पर हाथ रख सच बोलने कि कसम खा हर आदमी झूट ही बोलता है - और प्राचीन ज्ञानी कह गए "जगत मिथ्या..." :)

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  32. आपको और आपके परिवार को होली पर्व की हार्दिक बधाइयाँ एवं शुभकामनायें!

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  33. शरद जी ऐसा 'संयोग' हुआ कि जो 'विज्ञान' पर आधारित टिप्पणी मैंने सोचा था आपके ब्लॉग में दूंगा वो आज सबेरे ही मैंने रवीश जी के ब्लॉग में देदी,,,और यहाँ भी आपकी सूचना हेतु दे रहा हूँ:

    "यह तो मानना ही पड़ेगा कि 'आधुनिक हिन्दू' की तुलना में 'प्राचीन हिन्दू' बहुत गहराई में गए थे (या किसी अदृश्य शाश्वत शक्ति द्वारा ले जाये गए थे),,,

    उन्होंने भी 'आधुनिक वैज्ञानिकों' के समान पहले जाना होगा कि मानव शरीर में पृथ्वी के समान ही लगभग ७० प्रतिशत जल की मात्रा है और अन्य ३० % पृथ्वी में प्राप्त अन्य तत्त्व, कैल्सियम आदि आदि...इसके पश्चात ही वो गहराई में जा मानव को 'मिटटी का पुतला', पृथ्वी का ही प्रतिरूप जान पाए होंगे, (सौर मंडल के ९ सदस्यों के सार से बने जिससे पृथ्वी भी स्वयं बनी है) जिसे 'जीवन' जल के द्वारा प्रदान किया गया और जिसे स्वयं चन्द्रमा की कृपा समझा (चन्द्रमा का पृथ्वी का ही अंश होना 'शिव-पार्वती के विवाह' की मनोरंजक कहानी से, और 'भगीरथ' की कहानी द्वारा पृथ्वी अथवा 'शिव की जटा-जूट' यानि हिमालय के जंगल, पर जल अथवा 'गंगाजल' का अवतरण आम आदमी तक पहुंचाया गया)...

    संक्षिप्त में, सांकेतिक भाषा में, उन्होंने 'ब्रह्मा' के चार मुख बताये: चार दिशायें या कैलाश-मानसरोवर से बहने वाली चार प्रमुख जीवनदायी नदियाँ (गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, और सिन्धु, और उनकी अनंत सहायक नदियाँ), जो अंततोगत्वा खारे जल वाले सागर में निरंतर जा मिलती हैं, और फिर सूर्य की शक्ति से ऊपर उठती हैं...

    और जहां तक चार वर्ण का प्रश्न है, हर व्यक्ति किसी न किसी का गुरु, यानि अन्धकार यानि अज्ञान को हरने वाला ज्ञान का स्रोत है ही,,,किन्तु प्रकृति में व्याप्त विविधता के कारण हर कोई अनंत सीढ़ी की विभिन्न पायदान पर खड़ा समझा जा सकता है अपने भीतर अलग अलग मात्रा में चारों वर्ण समाये, और 'अनंत शिव' - जिसका एक अंश हरेक के अन्दर भी उपलब्ध जाना गया है - को ही केवल सबसे उपरी पायदान में सदैव खड़ा जाना गया है - कैलाश पर्वत की चोटी पर जैसे :)"

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  34. aapki ye rachna bahut hi achchhi lagi ,jo sawal utaya aapne bahut mahtavpoorn raha ,sabke vicharo ko bhi padhi bahut achchha laga aakar yahan .

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