रविवार, 7 नवंबर 2010

भाईसाहब ज़रा ठीक से खड़े रहिये

 मस्तिष्क की कार्यप्रणाली - चार -  वातावरण के साथ शरीर का तालमेल 


                  शीत ऋतु का आगमन हो रहा है । बदलते हुए इस मौसम को हम अपने शरीर द्वारा महसूस कर रहे हैं । लेकिन जिसे हम महसूस करना कहते हैं वह वास्तव में शरीर द्वारा नहीं होता , शीत हो या गर्मी अनुभव करने की यह क्रिया हम अपने मस्तिष्क द्वारा ही सम्पन्न करते हैं । 
                         मस्तिष्क की इस कार्यप्रणाली द्वारा हम वातावरण के साथ अपना सामंजस्य स्थापित करते हैं । जैसे अपने शरीर को ठंड में सिकोड़ लेना और गर्मी मे फैलाना । वस्तुत: भौतिक रूप से हम ऐसा नहीं करते हैं क्योंकि हमारा शरीर लोहे का नहीं बना है और गर्मी से फैलने और ठंड से सिकुड़ने का नियम इस पर लागू नहीं होता है । लेकिन हम इसकी इच्छा रखते हैं । उदाहरण के रूप में याद कीजिये उन यात्राओं को जो आपने सर्दी , गर्मी , बरसात के अलग अलग मौसम में की होगी । गर्मी के दिनों में यात्रा करते हुए हम चाहते हैं कि हमारा सहयात्री हमसे दूर बैठे और हम थोड़ा फैल कर बैठ सकें । हम ऐसी स्थिति में अपने शरीर को भी थोड़ा फैलाने की कोशिश करते है । अपने कमीज़ के कॉलर को थोड़ा उपर कर लेते हैं और हवा आने दो के अन्दाज़ में यहाँ - वहाँ देखते हैं । 

हालाँकि यह नियम उस स्थिति में लागू नहीं होता जब आप वातानुकूलन में यात्रा कर रहे हों । लेकिन मैंने देखा है कि बहुत से लोग ए सी में कुछ देर बैठने के बाद असुविधा का अनुभव करने लगते हैं और वहाँ से बाहर निकल कर ही उन्हे चैन आता है । वैसे भी हमारे देश में जहाँ असंख्य आबादी खुले आसमान के नीचे रहती है , ए सी की सुविधा चंद लोगों को ही प्राप्त होती है । 
मस्तिष्क की इस कार्यप्रणाली की वज़ह से जैसे गर्मी के मौसम में हम थोड़ा फैलकर बैठना चाहते हैं इसके विपरीत ठंड में यात्रा करते हुए हम अपने आप में सिमट जाना चाहते हैं । बगल वाले यात्री से भी हमें कोई असुविधा नही होती कि वह कितना सटकर बैठा है । हाँ उसके शरीर से बदबू आ रही हो तो और बात है । हाँ कई पुरुष अवश्य ऐसे होते हैं जो ठंड हो या गर्मी स्त्री के समीप बैठने का सुख नहीं छोड़ना चाहते जब तक कि इसके लिये दुत्कारे न जायें । बस वगैरह में एकाध स्त्री यह बोलने का साहस कर ही लेती है “ भाईसाहब ज़रा ठीक से खड़े रहिये । “ लेकिन इसके लिये मस्तिष्क का यह विभाग दोषी नहीं है , इसका दोष मस्तिष्क के एक अन्य विभाग को दिया जा सकता है ,जो हम आगे चलकर देखेंगे । 

मस्तिष्क का यह विभाग इस तरह पूरे समय वातावरण के साथ शरीर का तालमेल बिठाने की कोशिश करता है । यह कार्य इस तरह से होता है कि हमें पता ही नहीं चलता ।
उपसर्ग में प्रस्तुत है मस्तिष्क की इसी कार्यप्रणाली से सम्बन्धित मेरी यह कविता -

मस्तिष्क के क्रियाकलाप – छह – सामंजस्य

लोहा अपने गुणधर्म में                                                                             
फैल जाना चाहता है उष्मा मिलते ही
अपने अणुओं में सिमट जाना चाहता है शीत पाकर

प्रकृति के साथ सामंजस्य बनाये रखना
प्रकृति के घटकों का गुणधर्म है

पहाड़ों से आती हैं सर्द हवाएँ
और हम अपने भीतर कैद होने की कोशिश करते हैं
निकल जाना चाहते हैं देह से बाहर गर्म हवाओं में

इस देह का अधिष्ठाता है मस्तिष्क
स्वयं अपना अधिष्ठाता है जो
उसके संस्कारों में शामिल है
वातावरण के मुताबिक स्वयं को ढालना

यह गुलामी में भी जी सकता है
स्वीकार कर सकता है शोषण की स्थितियाँ
फटेहाली में भी खुश रह सकता है

लेकिन यहीं कहीं उपस्थित हैं विरोध के संस्कार
जैसे ठंड का विरोध करते हैं हम आग जलाकर
गर्मी से बचने के इंतज़ामात करते हैं
सूखना चाहते हैं हम बारिश में भीगकर भी

उसी तरह विरोध करना चाहते हैं हम
अपनी बदहाली का ।

                        - शरद कोकास 
 





छवि गूगल से व शरद के कैमरे से  साभार

11 टिप्‍पणियां:

  1. जाड़े में सिकुड़कर गर्मी का संचय होता है और फैल जाने से गर्मी का बहिर्गमन संभावित होता है। पसीना जब वाष्प बनकर उड़ता है तो हमारी गर्मी भी ले उड़ता है। हमारे स्वाभाविक व्यवहार में विज्ञान निहित है। अस्तु...।

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  2. वातानुकूलित में मन घुटता है, बाहर निकल कर हवा के थपेड़े खाना अच्छा लगता है मन को।

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  3. आपको एवं आपके परिवार को दिवाली की हार्दिक शुभकामनायें!
    बहुत ही सुन्दर और शानदार पोस्ट ! बधाई!

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  4. Deewali men jab jyada log ghar men aate hain to shal ya sweater ke bina bhee kitanee achchee tarah hume mauka milta hi apnike karan. sunder sadee aur naye gehane ka pradarshan karne ka. Thand jo nahee lagti logon ke sneh kee garmahat

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  5. उसी तरह विरोध करना चाहते हैं हम
    अपनी बदहाली का !

    बहुत सही लिखा आपने ,तर्कसंगत बात को समाहित किया अपनी रचना में ,
    बहुत बधाई !

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  6. इस देह का अधिष्ठाता है मस्तिष्क
    स्वयं अपना अधिष्ठाता है जो
    उसके संस्कारों में शामिल है
    वातावरण के मुताबिक स्वयं को ढालना

    यह गुलामी में भी जी सकता है
    स्वीकार कर सकता है शोषण की स्थितियाँ
    फटेहाली में भी खुश रह सकता है
    ...bahut sundar laabhprad aalekh ke saatha saargarbhit rachna ke liye aabhar

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  7. जै हो
    कीमती जानकारी के लिये आभारी हूं

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  8. जानकारी का तो पता नही लेकिन चुलबुलापन मजेदार रहा!! :P

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  9. सुन्दर विश्लेषण और सटीक जानकारी

    यह गुलामी में भी जी सकता है
    स्वीकार कर सकता है शोषण की स्थितियाँ
    फटेहाली में भी खुश रह सकता है
    मस्तिष्क और उसकी कार्यप्रणाली अद्भुत है. इस बहाने सामाजिक सन्दर्भों को कविता ने बखूबी उकेरा है

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  10. मस्तिष्क और उसकी कार्यप्रणाली का सुन्दर विस्श्लेशण। धन्यवाद।

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